SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक् आचार ..... [१९३ श्रियं संमिक न्यानं च, श्रियं सर्वन्य सास्वतं । लोकालोकमयं सुद्ध, श्री संमिक न्यान उच्यते ॥३६२॥ श्रुतज्ञान क्या है ? कुछ नहीं, वह विमल सम्यग्ज्ञान है । श्रुतज्ञान क्या ? सर्वज्ञ का, शासन पुनीत महान है । शुचि विमल सम्यग्ज्ञान क्या? यह ज्ञान का वह पुंज है । नित लोक और अलोक का, जिसमें झलकता कुंज है। सर्वज्ञ भाषित ये शास्त्र सम्यग्ज्ञान के साक्षात् स्वरूप हैं, जिनेन्द्र भगवान के शासन के ज्वलत प्रतीक है और उस ज्ञानपुंज के विशाल निधान है, जो लोकालोक से सम्बन्धित सम्पूर्ण विषयों को भली प्रकार जानते हैं। श्रियं संमिक चारित्रं, संमिक्त उत्पन्न सास्वत । अप्पा परमप्पयं सुद्धं, श्री संमिक चरनं भवेत् ॥३६३॥ श्री जिन वयन से पूर्ण, ये श्रुत क्या ? परम चारित्र हैं । करते सृजन जो यथाख्याताचरण, नित्य पवित्र हैं। जिस निमिष बन जाता है चेतन, परम, ध्रुव चिद्रूप है । उस समय ही चारित्र का, परिपूर्ण होता रूप है ।। सर्वज्ञ भाषित ये शास्त्र निर्मल सम्यकचारित्र के उपमान हैं, जो अविनाशी, वीतराग यथाख्यात् चारित्र को जन्म देते हैं। चारित्र की सम्पूर्णता तभी कही जाती है, जब आत्मा अपने से चिपटे हुए कमों के बन्धनों को तोड़कर पूर्ण स्वाधीन हो जावे। जिनवाणो ऐसे हो दिव्य और मंगलमय मार्ग का प्रदशन करती है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy