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________________ १७६] - सम्यक आचार सिद्ध सिद्ध धुवं चिंते, उर्वकारं च विंदते । मुक्तिं च ऊर्ध सदभावं, ऊर्धं च मास्वतं पदं ॥३२८॥ ओंकार की, जिसका कि ऊर्ध्व स्वभाव, मुक्ति समान है । जो शाश्वत, ध्रव, अमर, ऊर्ध्व अनंत ज्ञान निधान है। आराधना करने से मिलता. सौख्य अपरम्पार है । इसका नमन होता है, सिद्धों को नमन बहुवार है । ऊर्ध्व और मुक्ति स्वभाव के धारी शाश्वत, अचल और पुण्य ओम् का चिंतवन करने से सिद्धों की राशि और सिद्धालय दोनों का अभिवादन हो जाता है, क्योंकि श्रोम मुक्ति और मुक्त-राशि के समान ही निराकार है और अनन्त सौख्य का धारी है। आचार्य आचरनं सुद्धं, तिअर्थ सुद्ध भावना । सर्वन्यं सुद्ध ध्यानस्य, मिथ्या तिक्तं त्रिभेदयं ॥३२९॥ आचार्य शुद्धाचरण का, करते निरंतर हैं कथन । रत्नत्रयों का मग्न हो, वे नित्य करते चितवन । सर्वज्ञ का धरते निरंतर, ध्यान वे अभिराम हैं । मिथ्यात्व से रहते परे, उनके हृदय के धाम हैं। प्राचार्य गण मंसार को शुद्धाचरण का उपदेश देते हैं; रत्नत्रय की भावना से वे परिपूर्ण रहत है और उसी के चितवन में उनका अधिकांश समय व्यतीत होता है। तीनों मिथ्यात्व से वे सर्वथा परे रहत हैं और मर्वज्ञ प्रभु के ध्यान में निरन्तर निमग्न रहना उनके दैनिक जीवन का एक अंश होता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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