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________________ १७४] .. सम्यक् आचार देवो परमिष्टी मइयो, लोकालोक लोकितं जेन । परमप्पा ज्ञानं मइयो, तं अप्पा देह मज्झमि ॥३२४॥ जो सिद्ध हैं, करते अरे वे, मोक्ष में आलोक हैं । केवल-मुकुर में वे निरखते, सतत लोकालोक हैं । भव्यो ! तुम्हारी देह में भी, उसी प्रभु को वास है। जिसमें रमण करता निरंतर, रे अनंत प्रकाश है ।। परम पद में स्थित जो सिद्ध परमात्मा हैं, वे अपार ज्ञान के स्वामी हैं-केवलज्ञान रूपी हैं। अपने केवलज्ञान रूपी दर्पण में वे तीनों लोकों को युगपत देखते हैं। हे भव्यो ! तुम्हारी देह में जो आत्मा निवास करती है. उसमें भी उसी ज्ञानधन परमात्मा का निवास है; उसमें भी वही ज्योतिपुंज परमात्मा रमण करता है। देह देवलि देवं च, उबइट्टो जेहि जिन देही । परमिष्टी च मंजुत्तो, पूजं च मुद्ध मंमिक्तं ॥३२५॥ भव्यो ! तुम्हारी देह में जो, आत्मा अभिराम है । वह क्या ? स्वयं परमात्मा, चिद्रूप. देव ललाम है । परमेष्ठियों के सब गुणों का, रे ! वहाँ अस्तित्व है । इस आत्म की आराधना ही, विज्ञजन सम्यक्य है । हे भव्यो । तुम्हारी देह-स्थित आत्मा में जो ज्योति जगमग जगमग किया करती है, वह क्या है। वह स्वयं परमात्मा है और कुछ नहीं । सिद्धों में जितने भी गुण रहते हैं, वे सब तुम्हारे उस परमात्मा में विद्यमान है। इस आत्मा रूपी परमात्मा की आराधना ही वास्तविक सम्यक्त्व है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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