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________________ सम्यक् आचार -१६१ अनस्तमितं कृतं जेन, मन वच कायं कृतं । सुद्ध भावं च भावं च. अनस्तमितं पालयेत् ॥२९८॥ मन, वचन,तन से त्याग जिसने,रात्रि भोजन कर दिया । सद् श्रेष्ठ भावों से समझ लो, हृदय उसने भर लिया ॥ उसका अहिंसा धर्म में रे ! पूर्णतम श्रद्धान है । वह रात्रि-भोजन-त्याग का, साधक महान, महान है ॥ जिस पुरुष ने मन से. वचन से और तन से रात्रि भोजन का त्याग कर दिया, उसने शुद्ध और निर्मल भावों से अपने हृदय के सरोवर को ओतप्रोत कर लिया ! वह शुद्ध अहिंसा धर्म का पालने वाला है और यदि कोई वास्तव में ही रात्रिभोजन का त्याग करने वाला पुरुष है, तो वह है । अनस्तमितं जेन पालंते, वासी भोजन तिक्तये । रात्रि भोजन कृतं जेन, भुक्तं तस्य न सुद्धये ॥२९९॥ जो पुरुष करते, रात्रि-भोजन-त्याग का हैं आचरण । उनको उचित है वे नहीं, खावें कभी बासा अशन । जो जीव बासे अशन का. करते अरे ! व्यवहार हैं । वे रात्रि-भोजन-त्याग का, करते न पूर्णाचार हैं। जो मनुष्य रात्रि में भोजन न करने का व्रत ठान चुके हैं, उनको चाहिये कि वे एक दिन पूर्व का बना हुआ या रात में बना हुआ बासा अन्न भी नहीं खावें । जो मनुष्य बासे अन्न को ग्रहण करते हैं, वे सम्यक विधि से रात्रिभोजन-त्यागी हैं, यह कदापि नहीं कहा जा सकता।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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