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________________ सम्यक् आचार [१५३ पात्रस्य अभ्यागतं कृत्वा, त्रिलोकं अभ्यागतं भवेत् । जत्र जत्र उत्पाद्यते, तत्र अभ्यागतं भवेत् ॥२८२॥ जो पात्र-दल का मुदित हो, करता महा आतिथ्य है । उस पुरुष का त्रिभुवन तली, आतिथ्य करती नित्य है ॥ जिस लोक में जा ये पुरुष, लेते बिमल अवतार हैं । उस लोक के बनते निशंकित, वे हृदय के हार हैं । जो सत्पात्रों को देखकर, उनका सम्मान करते हैं; उनकी अतिथि के समान विनय करते हैं, उनको त्रैलोक्य में विनय और सम्मान प्राप्त होता है। जहाँ जहाँ वे पुण्यवान जीव उत्पन्न होते हैं, वहीं वहीं लोक उन्हें अपना अतिथि समझने में अपना सौभाग्य मानते हैं और उन्हें असाधारण आतिथ्य भेंट करते हैं। पात्रस्य चिंतनं कृत्वा, तस्य चिंता स चिंतये । चेतयंति प्राप्तं वृद्धिं, पात्र चिंता सदा बुधै ॥२८३॥ जो पात्रदान उचितवन में, नित्य रहता चूर है । शुभ भाव से उसका हृदय, रहता सदा भरपूर है ।। चैतन्य को वह नर बनाता, भलीविधि उपभोग्य है। सत्पात्रदल के लाभ का, शुभ चिन्तयन ही योग्य है ॥ जो मनुष्य पात्रदान के चितवन में लवलीन रहा करता है, उसका हृदय हमेशा शुभ भावों से भरा रहता है । "मुझे सौम्य पात्र को दान देने का अवसर कब मिले" ऐसी भावना करने वाला अपनी आत्मा के चैतन्य गुण का सबसे अच्छा उपयोग करता है, यह एक मानी हुई बात है। अत: विद्वानों को दान देने की भावना हमेशा रखते रहना चाहिये।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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