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________________ अपनी बात आज के इम विज्ञान के युग में, जब कि कृत्रिम उपग्रह, पृथ्वी की परिक्रमा कर रहे हैं, पलक मारते ही लोग चन्द्रमाकी धरती पर उतर जाने का स्वप्न देख रहे हैं और मनुष्य के मस्तिष्क इस बान से ग्वाली नहीं रह गये हैं कि कुछ वर्षों के बीच में ही जगह जगह यत्र-चालिन मानव दृष्टिगोचर होने लगेंगे, "धर्म" नाम का शब्द बड़ी विडम्बनापूण स्थिति में पड़ गया है और लोग जैसे उसका उपहाम सा करने लगे हैं, लेकिन देश, क्षत्र, काल और भाव के अनुसार धर्म को परिभाषा में चाहे जो अन्तर आजाये. धर्म का मूलरूप न कभी नष्ट हुआ है और न होगा, और उसका एक ही कारण है। धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है पुगन से नहीं । और जब प्रात्मा अमर है. अविनाशी है और ध्रुव है तो उसका जो स्वभाव धर्म है, उसको कोन नष्ट कर मकना है ? वह संसार से कैसे लुप दो मकना है ! अभी हाल में ही ( १७नबम्बर १६५७ को) दिल्ली में जो विश्वधर्म सम्मेलन हुआ था, उसमें बोलते हुए राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था आज विज्ञान की प्रगनि ने एक दृमर्ग और जटिल समस्या उपस्थित कर दी है। प्रकृति और प्रकृति के साधनों पर मनुष्य इतना अधिकार पा चुका है, और पाता जा रहा है कि वह सपने को कंवल सर्वज्ञ ही नहीं, सर्व शक्तमान भी मानने ला है और भौतिक प्रगति र भतिक मुमः को ही सर्वश्रेष्ट ध्येय मानने लग जाये तो उसमें आश्चर्य नहीं । धर्म का मूल तत्व भौनिक माधनों पर निर्भर नहीं बल्कि अध्यात्म पर आधारित है। आज की परिस्थिति में मनुष्य उस मुख्य अाधार को ही खोता जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप मनुष्य-समाज भौतिक पदार्थों के लिये घातक होड़ में लग गया है और इसलिये परस्पर सहिष्णुता और उदारता की भावना कमजोर होती जा रही है।" ... धर्म अथवा अध्यात्मवाद का सहारा लिये विना मानव न तो विज्ञान की ही उन्नति से लाभ उठा सकता है और न ही सवनाश के अभिशाप से बच सकता है।" धम का स्वरूप क्या है, इस को समझाते हुए आपने कहा " मूल में सब धर्म एक रूप हैं और सब का एक ही ध्येय है, वह है मानत की आत्मा का पूर्ण विकास, जिससे वह सच्चो शान्ति अथवा मोक्ष या निर्वाण प्राप्त कर सके। दूसरे शब्दों में जिससे वह परमात्मा को प्राप्त कर सके। मनुष्य की यह महत्वाकांक्षा इतनो प्रवल और सार. गर्भित है कि दैनिक जीवन में इससे बढ़कर हमारा पथप्रदर्शन और कोई भावना नहीं कर सकती। सच्चे धर्म के धरातल पर पहुंचते ही आपसी मतभेद, सभी प्रकार के कलह और वैमनस्य सहसा लुप्त हो जाते हैं और मानव ऐसी व्यापकता के दर्शन करता है कि उसे सब एक समान दिखाई
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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