SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८] . सम्यक् आचार न्यान लोचन भव्यम्य, जिन उक्तं माधु धुवं । मुयं एतानि विन्यानं, मुद्ध दिस्टि ममाचरेत् ॥२५२॥ जो भव्य हैं, होते हैं उनके ज्ञान के ही नेत्र हैं । उस ज्ञान से ही देखते वे, ज्ञानमय सब क्षेत्र हैं । सम्यक्त्व ही होता है जिनका, मूलभृताधार है । बसता है उनके ज्ञान पर, विज्ञान का संसार है ॥ जो भव्य पुरुष होत है, उनके नेत्र ज्ञान से परिपूर्ण रहा करते हैं। संसार की सारी वस्तुओं को वे ज्ञान रूपी नेत्रों से ही देग्वा करते हैं, यह सर्वज्ञ देव का वचन है। जो सम्यग्दृष्टि पुरुष होते हैं, वे हमेशा अपना श्रुतज्ञान वृद्धिंगत बनाया करते हैं और इस तरह तत्वों में उत्तरोत्तर विशेष ज्ञान पैदा किया करते हैं। आचरनं अस्थिरीभूतं, मुद्ध तत्व तिअर्थकं । उर्वकारं च विंदते, तिस्टते मास्वतं पदं ॥२५३॥ जो तीन रत्नों से भरा, शुद्धात्म तत्व महान है । आरूढ़ हो उसमें जो करता, ओम् का गुणगान है । वह जीव सम्यक् आचरण में, मली विधि से लीन है । वह उस परम पद में विचरता, जो कि नित्य नवीन है। शुद्धात्म तत्व रत्नत्रय का निधान है। इस शुद्धात्म तत्व में ध्यानस्थ होकर, जो ओम् महामंत्र का चिन्तवन करता है, वही पुरुष पाचरणवान है; वही पुरुष सम्यक्चारित्र का आचरण करता है और वही पुरुष मोक्षमार्ग में स्थित है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy