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________________ १३४] ...... .................... सम्पक आचार पार्षडी मूढ़ जानते, पार्षडं विभ्रम जे रता । परपंचं पुद्गलार्थ च, पाषंड मूढ न संसय ॥२४४॥ जिसको न आत्मज्ञान है, जो हैं निरे बहुरूपिये । लौकिक प्रपंचों, विभ्रमों से, पूर्ण हैं जिनके हिये ॥ जो पुरुष रखते इन, कुगुरुओं में अरे श्रद्धान हैं । गुरुमूढ़ता के कूप में वे कूदते अज्ञान हैं। जो दिनरात पाखंड में ही चूर रहा करते हैं तथा आत्मा को विस्मृत बनाकर पुद्गल की सेवा करना ही जिन्होंने अपना धर्म बना लिया है, ऐसे पाखण्डी गुरुओं की जो आराधना करते हैं, वे मूढ़ पाखण्ड मूढ़ता के काठ में अपना पैर फंसाते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं है। अनृतं अचेत उत्पादं, मिथ्या माया लोक रंजनं । पार्षडि मूढ विस्वास, नरयं पतंति ते नरा ॥२४५॥ जो नित्यप्रति मिथ्यात्व का, करते सृजन संसार हैं । जो लोकरंजन और मायाचारिता के द्वार हैं । ऐसे कुगुरुओं में जो करते. भूल भी विश्वास हैं । वे नर नियम से नर्क में, करते निरन्तर वास हैं। जो नित्यप्रति मिथ्या बातों से सने हुए वाक्यों को जन साधारण में फैलाया करते हैं; लोकमूढ़ता और मायाचारिता के जो द्वार ही हैं, ऐसे खोटे गुरुओं में जो पुरुष विश्वास करते हैं, वे बिना किसी संशय के नर्क के पात्र बनते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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