SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “सम्यक् आधार.... .. . [१३९ कंद वीज जथा नेयं, संमूर्छनं विदलस्तथा । व्यापारे न च भुक्तं च, मूल गुनं प्रति पालये ॥२३४॥ जो कंद हैं, जो बीज हैं, या जो विदल हैं विज्ञजन । ' जिनके कि कण कण में विचरते. नित्यप्रति सम्मृर्छन । जो अष्ट गुण को चाहता, करता हृदय का हार है । इनका कभी करता न वह, व्यापार या व्यवहार है। भूमि के अन्दर उत्पन्न होने वाले कंद, बीज, द्विदल, विदल ये सब सम्मूर्छन जीवों के घर हा करते हैं। सम्यग्दृष्टि पुरुष को न तो इन्हें खाना चाहिये और न इनका व्यापार ही करना चाहिये। सम्मूच्छंनों के इन निवास स्थल पदार्थों को जो अभक्ष्य कहकर छोड़ देता है, वही अष्टमूल गुणों का अतिचार रहित पालन करता है। शुद्धात्मा का मनन और पाखंडियों में अश्रद्धा दर्सनं न्यान चारित्रं, साधं सुद्धात्मा गुनं । तत्व नित्य प्रकासेन, साधं न्यान मयं धुवं ॥२३५॥ शुद्धात्मा में तीन निधि, करतीं सदेव प्रकाश हैं । जिनमें अनन्तानन्त गुण, देते सतत आभास हैं। इन आत्मनिधियों की अरे, जो साधना करते सदा । उनके लिये प्रस्तुत बनी, रहती है शिव-सुख-सम्पदा ।। शुद्धात्मा में तीन निधियों का तीनों काल एक साथ प्रकाश होता रहता है। इन निधियों में अनंत गुणों की राशियें जगमगाया करती हैं, जिनमें से शुद्धात्म तत्व का छन छन कर प्रकाश होता रहता है। इस ज्ञान गुण के धारी आत्मा की जो पुरुष सदा ही अर्चना किया करता है, वह ज्ञान का पुज बनकर, एक दिन नियम से मोक्ष नगर का वासी बनता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy