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________________ ११८] सम्यक् आचार संमिक्तं जस्य न तिस्टंते, अनेय विभ्रम जे रता । मिथ्या मय मूढ दिस्टी च, संसारे भ्रमनं सदा ॥ २१२ ॥ सम्यक्त्व जीवन मूरि से, जिसका हृदस्तल भिन्न है । वह जीव विभ्रम- ग्रस्त हो, रहता सदा ही खिन्न है | जो घोर तिमिराच्छन्न, मिथ्या मार्ग में आरूढ़ है । संसार - अटवी में भटकता, वह सदा ही मूढ़ है ॥ जिसका हृदय सम्यक्त्व से बहुत दूर रहता है अथात् जिसे अपनी आत्मा के ज्ञान गुणों पर विश्वास नहीं रहता, वह पुरुष हमेशा ही विभ्रम- ग्रस्त अवस्था में पाया जाता है । मिथ्याज्ञान रूपी अंधकार में भटकते २ वह नेत्रहीन हो जाता है और निरंतर संसार रूपी कुंओं में गिरना ही उसका एकमात्र काम हो जाता है । संमिक्तं जेन उत्पादंते, सुद्ध धर्म रतो सदा । दोष तस्य न पस्यंते, रजनी उदय भास्करं ॥ २९३ ॥ जिसके हृदय में हो चुका, सम्यक्त्व -- रवि का जागरण । जो प्रति निमप करता है, आतम--धर्म का ही आचरण || उसके हृदय में दोष को रहता न कोई ठौर है । आदित्य के पश्चात रहती, सर्वरी क्या और ? जिसके हृदय में सम्यक्त्व रूपी सूर्य जाग जाता है; जो अपनी आत्म अर्चा में ही निरंतर तल्लीन रहता है, वह फिर किसी भी अवस्था में दोषों का पात्र नहीं रह पाता है । जब सूर्योदय हो जाता है तब क्या अंधकार भी कहीं देखने को मिला करता है ?
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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