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________________ सम्यक् आचार आत्म सद्भाव आरक्तं, पर द्रव्यं न चिंतये । न्यानमयो न्यान पिंडस्य, चिंतयंति सदा बुधैः ॥ १८४॥ यह आत्मा सद्भाव-पुंजों का, अगाध निधान है । , पर द्रव्य का फिर मूढ़ क्यों करता अरे ! तू ध्यान है ? जो जीव प्रज्ञावान हैं, अविवेक से जो हीन हैं । शुद्धात्म में ही वे पुरुष, रहते सदा तल्लीन हैं । यह आत्मा सद्भाव पुंजों का एक अगाध और अटूट निधान है। फिर यह समझ नहीं पड़ता कि यह प्राणी क्यों और किस लिये आत्मा से विगत पर पदार्थ का चिन्तवन किया करता है ? जो प्राज्ञ पुरुष होते हैं वे ज्ञान पिंड आत्मा के चिन्तवन करने में ही सदा तल्लीन रहा करते हैं । रूपस्थ ध्यान रूपस्तं चिद्रूपस्य, अधो ऊर्ध्वं च मध्ययं । सुद्ध तत्व अस्थिरी भूतं, ह्रींकारेन जोड़ते ॥ १८५ ॥ [ १०१ रूपस्थ के ध्यानी सदा करते हैं यह ही चिन्तन | अर्हन्त में तीनों ही, लोकालोक करते हैं रमण || होते हैं उनके लक्ष्य श्री जिन चतुर्विंश महान हैं । उन ही से वे शुद्धात्म पद का प्राप्त करते ज्ञान हैं । रूपस्थ ध्यानी विचार करता है कि अहन्त भगवान में तीनों ही लोक का ज्ञान विचरण कर रहा है अर्थात् अरहन्त भगवान तीनों ही लोक और अलोक में विद्यमान हैं। चौवीस तीर्थंकर ही उसके लक्ष्य के महान विन्दु होते हैं और उनका स्वरूप चिन्तवन करते करते ही वह शुद्धात्मतत्व का अनुभव कर लेता है ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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