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________________ [ - ] जगत् मूल एक सा तत्व ब्रह्म ही है जो इन्द्रियानीत है । उसके अतिरिक्त जो इन्द्रियगोचर पदार्थ हैं वे सब मिथ्या हैं । माया रूप हैं। जो सजीव पदार्थों में हम एक चेतन तत्व पाते हैं वह ब्रह्म ही है, अन्य कुछ नहीं । इस दृष्टि से एक मात्र विश्वव्यापी तत्त्र ब्रह्म ही सत्य है । शेष समस्त गोचर व अनुभवगम्य पदार्थ माया है, मिथ्या है। जीव के यदि कोई बंधन है, आवरण है, तो दृष्टिभ्रम का ही । जब जीव अपने को ब्रह्म रूप जान जाता है तब वह शुद्ध, बुद्ध मुक्त होकर उसी ब्रह्म में लीन हो जाता है और यही उसका अन्तिम ध्येय है- ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति । । इसके विरुद्ध जैन धर्म ने जीव और अजीत्र दोनों तत्वों को सत्य स्वीकार किया है। अजीव का सूक्षतम रूप कर्म-रज है जो अत्मा के साथ संबद्ध होकर उसे नाना भवों व पर्यायों तथा सुख दुःख का अनुभव कराती है। यह कर्म-रज जीव तत्त्र में तभी अनुप्रविष्ट होती और उसको बांधती है जब जीव के मन, वचन, काय की क्रिया और क्रोध, मान, माया, लोभ रूप विकार होता है। जब जीव अपनी चैतन्यरूप आत्मसत्ता को जड़ तत्व से भिन्न पहिचान कर सतर्क हो जाता है, संयम द्वारा इन्द्रियों और कषायों का दमन करने लगता है तथा आत्मतत्व में तल्लीन बहने लगता है तब उसके कर्म बन्ध की परम्परा क्षीण हो जाती है, समस्त बंधे हुये कर्म नष्ट हो जाते हैं, यही उसका मोक्ष व निर्वाण है 1 इस प्रकार जैन तत्वज्ञान के अनुसार कोई विश्वव्यापी एक मात्र ब्रह्म नहीं है, जिसमें समस्त जीव मुक्त होने पर विलीन हो जायें । किन्तु मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी कीट पतंग एवं वनस्पतियों तक जितने सचित्त प्राणी हैं उन सब की अपनी अपनी अलग आत्म-सत्ता है। इस प्रकार नोबों की संख्या अनन्त है । उनका संसार में बन्धन उनकी भ्रान्ति मात्र रूप नहीं है, किन्तु उनकी शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं द्वारा सींची हुई कर्म रज से उत्पन्न हुआ है। जिस जीव ने संयमादि द्वारा अपने को इस बन्धन से मुक्त कर लिया वह किसी अन्य सत्ता में अपने को विलीन नहीं करता, किन्तु स्वयं परमात्मा बन जाता है। अनादिकाल से यह क्रम चला श्र हा है और इस प्रकार परमात्माओं की संख्या भी अनन्त है । जगत का जड़ तत्व भी मिथ्या नहीं है, पृथ्वी, आकाश व काल की अपनी अपनी पृथक् सत्ता है और उनके द्वारा जीवों का अपने अपने भावों के अनुसार उपकार भी होता है और अपकार भी । चेतन को जड़ से मुक्त करने की प्रक्रिया का नाम ही धर्म है । इस प्रकार धर्म का मूल स्वरूप आध्यात्मिक ही सिद्ध होता है । किन्तु जब धर्म को मूर्तिमान स्वरूप देने का प्रयत्न किया जाता है, उसे व्यावहारिक व सामाजिक बनाया जाता है, तब उसमें नाना प्रकार के दृश्यमान प्रतीकों का समावेश हो जाता है। जिन परमात्माओं के चरित्र का
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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