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________________ ९२] ........... ..... सम्यक् आचार क्रोध कोहाग्नि असास्वतं प्रोक्तं, सरीरे मान बंधनं । .:: असास्वतं तस्य उत्पाद्यन्ते, कोहाग्नि धर्म लोपनं ॥१६६॥ नर के अशुचि तन में बसा. जो मान शत्रु महान है । क्रोधाग्नि में नित प्रति, भरा करता अरे ! वह प्राण है ॥ क्रोधाग्नि करती है सृजन, सुन! दुख भरा संसार है । प्रिय धर्म-मणि को वह, बना देती क्षणों में क्षार है ॥ __ शरीर में जो मान रूपो शत्रु निवास करता है, वह क्रोधाग्नि को हमेशा प्रज्वलित बनाता रहता है। इस क्रोधाग्नि से क्या उत्पन्न होता है ? अशाश्वत और अनिष्ट वस्तुएं अर्थात वे वस्तुएं, जो आत्मा के स्वभाव के सर्वथा प्रतिकूल हैं । धर्मरत्न इस क्रोधाग्नि में गिर पड़ता है और गिरकर क्षार हो जाता है। एतत् भावनं कृत्वा, अधर्म तस्य पस्यते । रागादि मल संजुक्तं, अधर्म नु नंगीयते ॥१६॥ जिस ठौर व्यसन, कषाय, मद के यूथ का सहवास है । उस ठौर. निश्चय समझ लो, करता अधर्म निवास है ॥ रागादि-मल से युक्त दोषों का, जहाँ संसार हो । उस ठौर फिर कैसे, अधर्म-पिशाच का न बिहार हो ? जहां पर व्यसन, कषाय और मदों के झुंड विचरते हैं, वहाँ पर निश्चय से ही अधर्म निवास करता है। जहाँ रागादि मलों का भंडार हो, केवल वहीं तो अधर्म का अड्डा रहा करता है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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