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________________ सम्यक् आचार [ ८३ कुन्यानं तप तप्तानं, राग वर्द्धन्ति ते तपा। ते तानि मूढ सद्भावं, अज्ञानं तप श्रुत क्रिया ॥१४८॥ जो तप्त रहते मृढ़ नर, कुज्ञान-तप में ही सदा । वे राग-भावों की कमाते, सतत खोटी सम्पदा ॥ सत्भाव के बदले, कुभावों की वे करते हैं क्रिया । अर्थात् वे कुश्रुत, कुतप, कुक्रिया से भरते हिया । कुज्ञान रूप तपस्या करने से कुछ हम्तगत नहीं होता, केवल संसार में परिभ्रमण कराने वाले गगों का बंधन ही प्राप्त होता है। जो मनुष्य मूढ़तावश उक्त प्रकार का आचरण करते हैं, वे कुक्रिया करते हैं, कुशास्त्र सुनते हैं और कुतप तपकर अपना समय नष्ट करते हैं। अनेय तप तप्तानं, जन्मनं कोड कोडभि । श्रुतं अनेय जानते, राग मूढ़ मयं सदा ॥१४९॥ अज्ञान तप तप देह को, जो जड़ बनाते क्षार हैं । वे जीव जीवन में बसाते, कोटिशः संसार हैं। यह सत्य हो सकता है, वे जाने सहस्रों शास्त्र हैं । पर लिप्त रहते राग से, उनके हृदय के पात्र हैं। जो अज्ञान से आच्छादित या आत्मानुभव रहित तप तपते हैं, वे पुरुष इस संसार में करोड़ों जन्म मरण प्राप्त कर कठिन से कठिन दुःख भोगते हैं। अनेकों वेद शास्त्रों के पाठी होते हुए भी, ज्ञान तिमिर में वे इतने जकड़े हुए रहते हैं. कि राग उनके हृदय से दूर ही नहीं होता है। othohotho
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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