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________________ ७४ ] सभ्यक आचार मनस्य चिंतनं कृत्वा, अतेस्यं दुर्गति भावना । कृतं अमुद्ध कर्मस्य. कूड भाव रतो नदा ॥१३०॥ चोरी करूँगा आज मैं, इस भाँति करना चिन्तवन । हे भव्य ! यह दुर्भावना, करती है दुर्गति का सृजन ॥ जो इस अशुभतम कर्म में, रहते सदा लवलीन हैं । उनके हृदय छल कपट से, रहते सदैव मलीन हैं । सिर्फ इतना ही चितवन करना कि मुझे आज चोरी करना चाहिये या मैं आज चोरी करूंगा, चौर्य नामक महान दोप हो जाता है जो मनुष्य को दुर्गति का पात्र बना देता है। जो मनुष्य इस दुष्कर्म में मदा ही लवलीन रहा करते हैं. उनके हृदय कर भावनाओं से या छल कपट से ओत प्रोत हो जाते है । अतस्यं अदत्तं चिंते, वयनं असुद्धं मदा । हीनकृत कूड भावस्य, अस्तेयं दुर्गति कारणं ॥१३१॥ जो चौर्य या कि अदत्त जड़ का, नेक करते चिन्तवन । उनके नियम से, अशुभ हो जाते हृदस्तल के वचन ।। मोया कपट में वीतता, उनका सदा ही काल है । यह चौर्य दुर्गति हेतु है, यह चौर्य काल कराल है ॥ बिना दी हुई किसी चीज को ले लेने का चिंतवन करना, यह भी चौर्य दोप ही है - इस प्रकार की चोरी करने से मनुष्य के आलाप-प्रलाप में विकार आ जाता है और वह मनुष्य कटु भाषी बन जाता है। चौर्य एक महान नीचकर्म है। इसको करने वाला मनुष्य छलकपटी और कूटकर्मी हो जाता है और अन्न में जाकर दुर्गनियों में धूल छानना है।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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