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________________ सम्यक् आचार मुद्ध तत्वं न वेदंते, असुद्धं मुद्ध गीयते । मद्यं ममत्व भावेन, मद्य दोष जथा बुधैः ॥ ११६ ॥ जो शुद्धतम तत्वार्थ का, लाते न मनमें ध्यान हैं । जड़, पुद्गलों का आत्मवत्, करते सतत जो गान हैं । इस भांति के मिथ्यात्व में ही, जो सदा लवलीन हैं। वे मद्यपी हैं, छानते नित चतुर्गति मतिहीन हैं। जो मनुष्य शुद्ध आत्मतत्व का तो अनुभव नहीं करते और जड़ अचेतन पदार्थ की वन्दना भक्ति कर, उसके निरन्तर गीत गाते रहते हैं, वे पुरुष संसार को आसक्ति रूपी मदिरा का पान करने वाले होते हैं। अचेतन पदार्थ की चेतन के समान पूजा करना, यह भी मद्य पीने के समान एक महान दोष है। जिन उक्तं सुद्ध तत्वार्थ, जेन मार्धन्त्यव्रती व्रती । अन्यानी मिथ्या ममतस्य, मद्ये आरूढ ते सदा ॥ ११७ ॥ जिस शुद्ध आत्मिक तत्व का, जिनराज करते हैं कथन । उसको नहीं जो साधते हैं, प्रती या अवती जन ॥ वे नर महा अज्ञान है, मतिहीन हैं, जड़, मूढ़ हैं। वे मद्यपी के सदृश मिथ्यामार्ग में आरूद हैं। श्री सर्वज्ञ प्रभु द्वारा जिस शुद्धात्मधर्म का कथन किया गया है, उसको जो व्रती या अवती मानव पालन नहीं करते हैं, वे महा अज्ञानी और मूद होते हैं और ठीक उनके समान आचरण करते हैं जो दिन रान मब के नशे में चूर रहा करते हैं।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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