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________________ ८४ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र गई और उस विषय का अकल्प्य और बहुत बार तो प्रतिक्रिया पैदा करे ऐसा विशाल साहित्य रचा गया। इस तरह का साहित्य सभी भारतीय त्याग-प्रधान परम्परागो मे है। इसके विरुद्ध वैराग्य के बारे मे एक दूसरा विचार ऐसा पैदा हुया कि तथाकथित आकर्षक पदार्थों का परित्याग किया जाय अथवा उनमे फंसने वाली नेत्र आदि इन्द्रियो को रोका जाय, तो भी मन मे उन पदार्थों की स्मृति होने पर राग उत्पन्न होगा ही, और यदि राग हो तो प्रतिकूल पदार्थों मे देष का आविर्भाव अनिवार्य है। अत. बाह्य पदार्थो के मात्र त्याग से वैराग्य सिद्ध नही हो सकता। इस विचार ने अनेक साधको को प्रेरित किया। उनमे से कतिपय साधको ने मनोजय करने के लिए मन को मारने का सावन ढूंढ निकाला। वह साधन यानी येन केन प्रकारेण मन को कुण्ठित अथवा निष्क्रिय बनाना। इसके लिए हठयोग मे कुछ प्रणालिकाएँ भी दाखिल हुईं तथा अबूझ साधको ने भावावेश मे आकर मादक पेय एवं खाद्याखाद्य के विवेकशून्य उपयोग का भी आश्रय लिया । यह प्रथा भी चल पडी और इस समय भी सर्वथा बन्द हुई है ऐसा कह नहीं सकते, परन्तु विशेष विचारक साधको ने देखा और कहा कि मन को मारने का अर्थ उसे कुण्ठित या निष्क्रिय बनाना नहीं है, किन्तु उस मन को गतिशील रखकर उसमे राग, द्वेष एवं अज्ञान के जो मल और उनके जो स्तर जमे हो उन्हें दूर करना और उन मलों से आवृत चित्त की अथवा जीवन की विशुद्ध शक्तियो को उद्बुद्ध करके उन्हें ऊर्ध्वगामी मार्ग की ओर प्रेरित करना- यही सच्चा अर्थात् परवैराग्य है । हरिभद्र ऐसे परवैराग्य के पूर्ण समर्थक हैं, इसलिए उनके प्रस्तुत दो ग्रन्थो मे न तो आकर्षक स्त्री, पुत्र आदि का दोप-दर्शन देखा जाता है और न मन को निष्क्रिय करने का एक भी सूचन है । उन्होने तो परवैराग्य को ध्यान मे रखकर इन दोनो ग्रन्थो मे योगतत्त्व की अपनी रूपरेखा उपस्थित की है। __ योगदृष्टिसमुच्चय में उन्होने वैसी रूपरेखा का निर्देश दो तरह से किया है : पहली इच्छायोग, शास्त्रयोग एवं सामर्थ्य योग के रूप में तथा दूसरी मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा और परा जैसी आठ दृष्टियो के रूप मे'१। पहली रूपरेखा संक्षिप्त है । उसके द्वारा हरिभद्र कहते है कि योगतत्त्व की ओर अभिमुख होना- यह प्रथम सोपान यानी इच्छायोग है । आध्यात्मिक वृत्ति को जीवन में उतारने के लिए अनुभवी योगियो के वचन का अथवा उनके साक्षात् उपदेश का सहारा लेना- यह द्वितीय सोपान यानी शास्त्रयोग है। अनुभवी के निर्देशन तथा अपने उत्साह • १०. 'योगदृप्टिसमुच्चय' ३-५1 ११. वही, १३ ।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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