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________________ योग- परम्परा में हरिभद्र की विशेषता ७६ सम्भव है, परन्तु विकास की दिशा तो एक ही होती है । अतएव भले ही उसका निरूपण भिन्न-भिन्न परिभाषाओं में हो श्रौर उसकी शैली भी भले ही भिन्न हो, परन्तु उस निरूपण का ग्रात्मा तो एक ही होगा । उनकी यह दृष्टि अनेक योगपरम्परात्रों के प्रतिष्ठित ग्रन्थों के पूर्ण और यथार्थ अवगाहन के फलस्वरूप बनी मालूम होती है । इसीलिए उन्होने निश्चय किया कि में ऐसे ग्रन्थ लिखूं जो सुलभ सभी योगशास्त्रों के दोहनरूप हों और जिनमे किसी एक ही सम्प्रदाय मे रूढ़ परिभाषा या शैली का प्राश्रय न लेकर नयी परिभाषा और नयी शैली की इस प्रकार आयोजना की जाय जिससे कि अभ्यस्त सभी योग परम्पराओ के योग-विषयक मन्तव्य किस तरह एक है अथवा एक-दूसरे के प्रतिनिकट है यह बतलाया जा सके और विभिन्न सम्प्रदायो मे योगतत्त्व के बारे मे जो पारस्परिक ज्ञान प्रवर्तमान हो उसे यथासम्भव दूर किया जा सके । ऐसे उदात्त ध्येय से उन्होने प्रस्तुत दो ग्रन्थो की रचना की है । हम उन्ही के उद्वारों में उनके इस उदात्त ध्येय को सुने - अनेकयोगशास्त्रेभ्यः संक्षेपेरण समुद्धृत । दृष्टिभेदेन योगोऽयमात्मानुस्मृतये पर ॥ २०५ ॥ - योगदृष्टिसमुच्चय सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन तत्त्वतः । सन्नीत्या स्थापकं चैव मध्यस्थांस्तद्विद. प्रति ॥ २ ॥ - योगबिन्दु इस दूसरे श्लोक मे मध्यस्थ योगज्ञ को उद्दिष्ट करके कहा है कि योगबिन्दु सभी योगशास्त्रों का अविरोधी अथवा विसंवादरहित स्थापन करनेवाला एक प्रकरण है । इस कथन मे तीन बाते मुख्य हैं : (१) मध्यस्थ और वह भी योग । (२) सभी योगशास्त्रो का तात्त्विक दृष्टि मे अविरोध । इस कथन मे सम्भावित सभी योगशास्त्रो के हरिभद्र द्वारा अवगाहन किये जाने की सूचना है । ऐसा प्रवगाहन दूसरे किसी ने किया हो तो उसका ऐसा स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नही होता । यद्यपि सभी अच्छे शास्त्रों में समान विपयवाले ग्रन्थों का अवगाहन होता ही है, तथापि पातजल अथवा बौद्ध यदि कोई ऐसा योगशास्त्र नही है जिसमे लभ्य सर्व योगशास्त्रों का दोहन करके उनमे तात्त्विक रूप से अविरोध बतलाया गया हो अर्थात् तुलना की गई हो । ( ३ ) 'तत्त्वत.' और 'अविरोध' ये दो पद अर्थवाही हैं । शाब्दिक अथवा स्थूल विरोध महत्त्व का नही है, जो विरोध मूलगामी हो वही विरोध कहा जा सकता है। हरिभद्र कहते हैं कि योगशास्त्रो मे जो मूलगामी अविरोधी वस्तु है उसका यहाँ स्थापन किया गया है और वह भी योगज्ञ मध्यस्थो को लक्ष्य मे रखकर; दूसरे के लिए ऐसा स्थापन कार्य
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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