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________________ दृष्टि से दार्शनिको के वादो की निस्सारता भी प्रोझल न रह सकी। यही कारण है कि उन्होने अपने शास्त्रवार्तासमुच्चय नामक ग्रंथ मे सव दर्शनो मे परिभाषामेद के कारण होनेवाले विवाद का शमन करके अभेद दर्शन कराया है। इतना ही नहीं, किन्तु 'कपिल आदि सभी दार्शनिक प्रवर्तको का समान रूप से श्रादर करणीय है, क्योकि वे सभी समान भाव से वीतरागपद को प्राप्त थे'-इस बात का तर्कसंगत समर्थन भी आचार्य हरिभद्र ने किया है । राजस्थान की एक विभूति ने भारतीय योगमार्ग और दर्शनमार्ग में इस प्रकार अभेददर्शन उपस्थित किया, यह राजस्थान के लिये गौरव की बात है। अतएव 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' का प्रस्तुत प्रकाशन राजस्थान पुरातन ग्रंथमाला मे हो, यह सर्वथा समुचित है। 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' के लेखक-व्याख्याता पंडितप्रवर श्री सुखलालजी मेरे परम श्रद्धेय मित्र है। उनकी तलस्पर्शी विद्वत्ता का विशेष परिचय देने की आवश्यकता नही है । जिस प्रकार प्राचार्य हरिभद्र के जीवन का सार समदर्शित्व है उसी प्रकार पडित श्री सुखलालजी का जीवनकार्य भी समत्व की आराधना है। उन्होने भी समग्र भारतीय दर्शनों का अध्ययन किया है और विरोधशमन के मार्ग की शोध की है। उनके समग्र साहित्य की एक ही ध्वनि है कि विविध विचारधारामो मे, फिर वे दार्शनिक हो, धार्मिक हों या राजनैतिक, किस प्रकार मेल हो ? जन्म से गुजराती होकर भी उन्होने गुजराती की ही तरह राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी अपने साहित्यलेखन के माध्यम के रूपमे अपनाया है। उनके हिन्दी लेखन का आदर करके राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने उन्हे महात्मा गाधी पुरस्कार प्रदान किया, जो अहिन्दीभापी लेखको को हिन्दी मे उच्च कोटि का साहित्य लिखने के कारण दिया जाता है । उनके गुजराती साहित्य का आदर करके भारत सरकार प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी ने उनके 'दर्शन अने चिंतन' नामक गुजराती लेखो के संग्रहग्रथ के लिये ५०००) का और बंबई सरकार ने २०००)का पुरस्कार दिया था। प्रस्तुत 'समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र' के लिये भी गुजरात सरकार ने पुरस्कार दिया है । इनके अतिरिक्त अन्य भी कई पुरस्कार उन्होने प्राप्त किये है । उन्होने संस्कृत-प्राकृत मे कई ग्रन्यो का संपादन किया है । उनके सपादनो मे तुलनात्मक टिप्पणो की विशेषता है, जो उनके द्वारा संपादित ग्रन्थो के पूर्व दुर्लभ थी। उनके संपादनो मे विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखी गई हैं, जो तत्तद्विषय का हार्द खोलकर वाचक के समक्ष रख देती हैं। ई स. १६५७ मे अखिल भारतीय स्तर पर उनका सम्मान बंबई मे किया गया। तव तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ० राधाकृष्णन ने उनके शिष्यो और प्रशंसको के द्वारा एकत्र की गई करीब एक लाख की निधि उनको समर्पित की थी। उसका श्रीपंडितजी ने
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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