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________________ दार्शनिक परम्परा में आचार्य हरिभद्र की विशेषता [ ५६ सकते । ३८ हरिभद्र की यह महानुभावता, मेरी दृष्टि से, दर्शन-परम्परा मे एक विरल प्रदान है । ५. शान्तरक्षित ने औपनिषदिक श्रात्मा की परीक्षा मे ब्रह्माद्वतवाद का जैसा निरसन किया है, वैसा हरिभद्र ने भी किया है । यद्यपि उन्होने षड्दर्शनसमुच्चय मे मीमांसक दर्शन के प्रस्ताव मे ब्रह्मवादी दर्शन का निर्देश तक नही किया, फिर भी जब वे शास्त्रवार्तासमुच्चय में उस वाद का निरसन करते है, तब ऐसा तो नही कहा जा सकता कि वे उस दर्शन से परिचित नही थे । पड्दर्शनसमुच्चय की रचना उन्होने पहले की हो और उस समय वे ब्रह्मवादी दर्शन से परिचित न हो, ऐसा भी नही माना जा सकता । इसका कारण यह है कि हरिभद्र के समय तक प्रोपनिपद ब्रह्मवाद दूसरे किसी भी दर्शन की अपेक्षा कम प्रसिद्ध नही था । शंकराचार्य के पहले भी अनेक आचार्यों के द्वारा औपनिषद दर्शन ने ठीक-ठीक प्रसिद्धि पाई थी, और ऐसा भी नही लगता कि पड्दर्शनसमुच्चय की रचना हरिभद्र ने अपनी प्रौढ अवस्था मे की हो । इससे अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि हरिभद्र के मन प्रतिपाद्य आस्तिक दर्शनो मे जैमिनीय मीमांसाका स्थान प्रधान होगा, क्योकि उस समय कुमारिल आदि के द्वारा पूर्वमीमासा की विशेष प्रतिष्ठा जम चुकी थी । इसीलिए हरिभद्र ने मात्र उसी का वर्णन कर के सन्तोष माना हो । अस्तु, जो कुछ हो । परन्तु यहा पर भी हरिभद्र शान्तरक्षित से अलग पडते है । हरिभद्र ब्रह्मवाद का निरसन करने के पश्चात् भी उसका अपनी दृष्टि से तात्पर्य बतलाते है । हरिभद्र श्रमण-परम्परा के और समदृष्टि के पुरस्कर्ता है । उन्होने सोचा होगा कि भेद-प्रधान सृष्टि के मूल मे अधिष्ठान या कारण के रूप मे एकमात्र अखण्ड ब्रह्मतत्त्व है ऐसी तवादियो की मान्यता विशेपनिरपेक्ष सामान्यदृष्टि से तो सच्ची है, परन्तु सृष्टि अनुभूयमान भेद और उसमे से निष्पन्न जीवनगत वैषम्य का स्पष्टीकरण क्या हो सकता है ? इस विचार मे से उन्हें ब्रह्माद ेत का समभाव के साथ मेल बिठाने की सूझ प्रकट हुई होगी। वे कहते है कि शास्त्रो मे जो श्रद्ध ेत देशना है, वह जीवन की साधना मे वैषम्य का निवारण कर के समभाव की स्थापना करती है । यदि ३८. देखो पादटिप्पणी ३३ मे उद्धृत श्लोक । ३६. अन्ये व्याख्यानयन्त्येव समभावप्रसिद्धये । अव तदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्त्वत ॥५५०॥ - शास्त्रवार्ता समुच्चय
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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