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________________ दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान [३७ बीच और एक ही सम्प्रदाय की विविध शाखाओ के बीच बहुत बडा मानसिक अन्तर पड जाता है। वैसे अन्तर के कारण विरोधी पक्ष में रही हुई ग्रहण करने जैसी उदात्त वस्तुओ को भी शायद ही कोई ग्रहण कर सकता है । इसके परिणाम-स्वरूप परिभाषाओं की शुष्क व्याख्या और शाब्दिक धोखाधडी एवं विकल्प-जाल के प्रावरण मे सत्य की सांस घुट जाती है। यह स्थिति हरिभद्र के सूक्ष्म अन्तश्चक्षुने देखी। फलत उन्होने विरल कहे जा सके ऐसे अपने दर्शन और योग-परम्परा के ग्रन्थो मे ऐसी शैली अपनाई है कि जैन-परम्परा के मौलिक सिद्धान्त जैनेतर परम्पराएँ उनकी अपनी परिभाषा मे सरलता से समझ सके और जैनेतर बौद्ध या वैदिक परम्परा के अनेक मन्तव्य अथवा सिद्धान्त जैन परम्परा भी समझ सके. विरोधी समझे जानेवाले और विरोध को पोसनेवाले भिन्न-भिन्न सम्प्रदायो के बीच हो सके उतना अन्तर कम करने का योगिगम्य मार्ग हरिभद्र ने विकसित किया है, और सब-कोई एक-दूसरे मे से विचार एव आचार उन्मुक्त मन से ग्रहण कर सके ऐसा द्वार खोल दिया है, जो सचमुच ही विरल है। इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने दार्शनिक और योग-परम्परा मे विचार एवं वर्तन की जो अभिनव दिशा उद्घाटित की है वह खास करके आज के युग के असाम्प्रदायिक एवं तुलनात्मक-ऐतिहासिक अध्ययन मे अत्यन्त उपकारक सिद्ध हो सकती हैं।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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