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________________ __३२] समदर्शी आचार्य हरिभद्र गिरिनगर के पश्चात् तुरन्त ही सौराष्ट्र मे वलभीपत्तन हमारा ध्यान आकर्पित करता है । वलभी का आर्थिक, राजकीय, सास्कृतिक एवं धार्मिक इस प्रकार चतुविध अभ्युदय, उत्तरोत्तर वर्धमान दशा मे, मैत्रक राजानो के राज्यकाल मे उनके ताम्रपत्र आदि के द्वारा हमे ज्ञात होता है । ८ मैत्रकों का राज्य ४७० ई० से शुरू होता है, परन्तु वलभी के उत्कर्ष की नीव तो बहुत पहले ही से पड़ चुकी थी। इसीसे एक अथवा दूसरे कारणवश गिरिनगर का वर्चस्व कम होने पर वलभीपत्तन उसका स्थान लेता है और इसीलिए हम देखते है कि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के विद्वान् और भिक्षुक वलभी मे अनेकविध सास्कृतिक और धार्मिक प्रवृत्तियो के पोषण के लिए प्रश्रय पाते है । ६ वलभी मे वैदिक विद्वान् दान लेते दिखाई पड़ते हैं, जैन और बौद्धो की विद्याशालाएँ तथा धर्मस्थान गौरव एव वैभव के समुन्नत शिखर पर प्रतिष्ठित होते है और राजा एव धनाड्य उनका बहुत ही सत्कार-पुरस्कार करते हैं । १ जहाँ ऐसा वातावरण न हो वहाँ स्वाभाविक रूप से ही बडी संख्या मे विविध परम्परागो के विद्वान् और सघ न तो पाने के लिए और न स्थिरवास करने के लिए लालायित हो सकते है। वैदिक, बौद्ध एव जैन परम्परा की विद्या-त्रिवेणी वलभी मे प्रवाहित हुई थी। इसके परिणाम स्वरूप इतर साहित्य के अतिरिक्त दर्शन एव योग परम्परा का साहित्य भी वलभी मे ठीक ठीक मात्रा मे रचा गया। वहाँ रचित, विवेचित और समीक्षित दार्शनिक एव योग-परम्परा के ग्रन्थो का सम्पूर्ण ख्याल आ सके ऐसे विश्वस्त उल्लेख यद्यपि इस समय उपलब्ध नहीं है, तथापि जो कोई विश्वसनीय उल्लेख मिलते हैं उन पर से इतना तो कहा जा सकता है कि वैदिक परम्परा के विद्वानो ने वलभी क्षेत्र मे दर्शन एव योग-परम्परा के बारे मे यदि कुछ लिखा होगा, तो भी वह इस समय तो अज्ञात है । बौद्ध-परम्परा के विशिष्ट भिक्षुप्रो ने वहाँ ठीक-ठीक रचनाएँ की होगी, क्योकि एनसाग के कथनानुसार वहाँ बौद्ध भिक्षुको का बहुत बडा समुदाय रहता था और वहाँ बडे-बडे विहार भी थे। आज तो उन बौद्ध विद्वानो मे से दो के नाम निर्विवाद रूप से ज्ञात है, जिन्होने वलभी क्षेत्र में रह कर दार्शनिक रचना की हो । वे दो हैं गुणपति और स्थिरमति । ह्य एनसाग ने ३७ देखो रुद्रदामा के उपर्युक्त शिलालेख की १३वी पक्ति मे आये हुए ये शब्द • 'शब्दार्थगान्धर्वन्यायाद्याना विद्याना महतीना' इत्यादि। ३८ देखो डॉ हरिप्रसाद शास्त्रीकृत 'मैत्रककालीन गुजरात' भाग २, तथा 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' पृ ४४ । ३६ 'मैत्रककालीन गुजरात' मे चामिक परिस्थिति पृ ३३६ से। ४० वही, पृ० ३५५ और उसका परिशिष्ट न० ३, पृ० ६८६ । ४१ वही, वौद्धधर्म के लिए पृ० ३८५ से और जैन धर्म के लिए पृ० ४१६ से।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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