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________________ दर्शन एव योग के विकास में हरिभद्र का स्थान [२५ ३. कर्म की वजह से जीवन के एक नियत रूप से रचे जाने की और एक नियत मार्ग से प्रवाहित होने की मान्यता, और फिर भी पौरुष अथवा बुद्धिप्रयत्न के द्वारा स्वतन्त्र विकास की शक्यता। ये सिद्धान्त तत्त्वज्ञानस्पर्शी है। योगस्पर्शी सिद्धान्तो मे प्रथम स्थान 'जीरो और जीने दो' की आत्मौपम्यमूलक अहिंसा का है । इस अहिंसा की दृष्टि और पुष्टि की वृत्ति में से संयम एवं तप का जो आत्मनिग्रही मार्ग विकसित हुआ वह इसके अनन्तर पाता है। अपनी दृष्टि और मान्यता के जितना ही दूसरे की दृष्टि और मान्यता का सम्मान करना-ऐसी समवृत्ति मे से उत्पन्न अनेकान्त अथवा सर्वसमन्वयवाद योगविकास का सर्वोपरि परिणाम है । उपर्युक्त दार्शनिक एवं योगपरम्परा के मूल सिद्धान्तो का विकास पूर्णतया भारत के अधिवासी अमुक वर्ग ने ही किया है अथवा बाहर से आकर भारत मे बसे हुए किसी वर्ग का भी उसमे कमोबेश हिस्सा है इत्यादि बाते निश्चित करना कभी शक्य ही नही है, फिर भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर विद्वान् ऐसा तो मानने लगे हैं कि पार्यो के पहले जो ऑस्ट्रिक एवं द्राविड जातिया थी उनका इस विकास मे बहुत बडा हिस्सा है ।२० मोहन-जो-डेरो और हडप्पा आदि नगर नष्ट हुए, परन्तु इससे कुछ उनकी संस्कृति और वहा बसनेवाली जातिया नप्ट नही हुई है। लोथल आदि की अभी-अभी की खुदाई ने यह तो बता ही दिया है कि वह जाति और संस्कृति देश के अनेक भागो मे फैली हुई थी। मोहन-जो-डेरो आदि स्थानो से प्राप्त मुहर आदि के ऊपर जो प्राकृतिया अकित है उनमे से योग-मुद्रावाली नग्न आकृति तथा दूसरी नन्दी आदि की आकृतियों की ओर विद्वद्वर्ग का खास ध्यान जाता है और बहुत से विद्वान् ऐसा मानने के लिए प्रेरित होते है कि वे प्राकृतिया असल मे किसी रुद्र, महादेव अथवा वैसे किसी योगी की ही सूचक है ।२१ दूसरी ओर भारत के भिन्न-भिन्न भागो मे प्रवर्तमान अनेकविध धर्मभावनाओ के साथ उस महादेव या शिवकी उपासना प्राचीन काल से किसी-न-किसी रूप मे जुडी हुई अथवा रूपान्तरित देखी जाती है । द्रविडभाषी जो द्राविड है उनका मूल धर्म ऐसी किसी रुद्रपूजा के साथ ही संवन्धित होगा-ऐसा मानने के भी कई कारण है। २ भारत के पूर्व, उत्तर एवं पश्चिम भाग मे २० डॉ० सुनीतिकुमार चेटर्जी का उपर्युक्त व्यास्यान पृ० ५५-६ । २१ वही। २२ वही, 'गुजरातनो सास्कृतिक इतिहास' खण्ड १, भाग १-२ पृ० २२०, डॉ० डी० पार० भाण्डारकर कृत 'Some Aspects of Indian Culture' p 39 ff , Marshall Mohinyo-Daro and Indus Civilization, Vol I, p 53-4
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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