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________________ १८] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र वर्ग अपनी अपनी धर्म-परम्परा को सर्वथा भिन्न माने और दूसरी परम्परा अथवा दूसरे मानवयूथ के पास से अपनी परम्परा में कुछ भी नयी वात पाने का इन्कार करे, तव सत्य की दृष्टि अवरुद्ध होती है। अतएव सम्भवित उद्भवस्थानो के प्रश्न की विचारणा मे हमे ऐसे वादो को एक ओर ही रखना पडेगा । यद्यपि इन वादो के आसपास सूक्ष्म तार्किक अनुमान और दूसरी रसप्रद वीद्धिक सामग्री भारतीय दार्शनिक साहित्य मे इतनी बडी मात्रा मे सञ्चित हुई है कि उसे देखने तथा उस पर विचार करने पर प्रत्येक पक्षकार के बुद्धि-वैभव के प्रति और उनकी अपने अपने सम्प्रदाय को अनन्य भाव से भजने की वृत्ति के प्रति मान पैदा हुए विना नही रहता, फिर भी सत्य की शोध में निकला हुया मनुप्य अाग्रह एवं अभिनिवेश का परित्याग किए बिना सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकता। उपर्युक्त अपीरुषेयत्व आदि वाद प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर के विचार मे अवरोधक होते है, यह सही है फिर भी प्राचीन समय में भी एक तत्वचिन्तक और स्वतन्त्र परम्परा के पुरस्कर्ता ऐसे हुए हैं जिनका झुकाव उक्त वादो से अलग पडता दिखाई देता है, वह है तथागत बुद्ध । तथागत ने अपने दार्शनिक एवं योग-विषयक सिद्धान्तो के बारे मे अपने गिप्यो के समक्ष अपने ही श्रीमुख से जो कहा था उसका उल्लेख पिटक मे मिलता है। उन्होने कहा था कि मैं जो कुछ कहता हू वह न तो अपीरुषेय है, न ईश्वरप्रणीत है और न सर्वज्ञप्रणीत ही । में तो सिर्फ एक धर्मज्ञ हू । जो धर्म मै तुम्हे समझाता है उसकी जानकारी तक ही मेरी मर्यादा है। उस धर्म-विपयक अनुभव से अधिक जानने का या कहने का मेरा दावा भी नही है। इसीमे तुम मेरे कथन को तर्क एव स्वानुभव से जाचो और कसो। मैंने कहा है इसीलिए उसे मत मानों । बुद्ध का यह कथन हमे अपने विषय मे स्वतन्त्र रूप से विचार करने की १ मैं जो कुछ कहता हूँ वह परम्परा से सुना करते हो इसलिए उसे सत्य मत मानना, अथवा हमारी पूर्वपरम्परा ऐसी है इसलिए सत्य मत मानना, 'यह ऐसा ही होगा' ऐसा भी जल्दी से मत मान लेना, अथवा यह वात हमारे धर्मग्रन्थो मे है इसलिए भी उसे सत्य मत मानना; यह वात तुम्हारी श्रद्धा के अनुकूल है, इसलिए उस पर विश्वास मत रखना; अथवा तुम्हारे धर्मगुरु ने कहा है, इसलिये उस पर विश्वास मत रखना। -डॉ राधाकृष्णन कृत Gautama, the Buddha का गुजराती अनुवाद पृ १३ एथ तुम्हे कालामा मा अनुस्सवेन, मा परम्परया, मा इतिकिराय, मा पिटकसपादनेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा प्राकार परिवितक्केन, मा दिट्ठिनिज्झानक्खतिया, मा भव्यरूपताय, मा समणो नो गुरू ति । यदा तुम्हे कालामा अत्तना व जानेय्याथ-इमे धम्मा अकुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्च गरहिता, इमे धम्मा ममत्ता समादिना अहिताय, दुक्खाय, सवत्त ती ति- अथ तुम्हे कालामा पजहेय्याथ । -~~-अगुत्तरनिकाय भाग १, ३ ६५३, पृ १८६ (पाली टेक्स्ट सोसायटी)
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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