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________________ १०४ समदर्शी श्राचार्यं हरिभद्र निषेध है; उसी प्रकार हरिभद्र ने जैन संस्कार से पुष्ट और अपने श्रापको युक्तियुक्त जंचनेवाली अपनी तात्त्विक मान्यता को तत्त्वदृष्टि का विचार करते समय, तटस्थभाव से उपस्थित किया है । उन्होने उसमे अभिनिवेश न बतलाकर ग्रन्त मे कहा है कि मैंने जो कुछ कहा है वह मध्यस्थ दृष्टि से कहा है । यदि विद्वानो को वह युक्त प्रतीत हो तो उस पर वे विचार कर सकते है । विद्वत्ता का फल ही यह है कि उसकी दृष्टि मे यह सिद्धान्त मेरा और यह पराया, ऐसा पक्ष हो ही नही सकता । उसे जो युक्तियुक्त एवं बुद्धिगम्य लगे उसी को वह माने । ६८ योगदृष्टिसमुच्चय में उनका भार पथ-पंथ और दर्शन-दर्शन के बीच चलनेवाले शुष्क वाद का निवारण करने पर है । इसीलिए वे सर्वज्ञत्व जैसे नाजुक विषय को लेकर भी कुतर्क - निवृत्ति की बात कहते है । एक स्थान पर अर्थात् योगबिन्दु मे तटस्थतापूर्वक अपनी मान्यता का निरूपण है, तो दूसरे स्थान पर अर्थात् योगदृष्टिसमुच्चय में अपनी अपनी मान्यता को स्थापना के बहाने दार्शनिकों मे चले श्राने वाले विवादो का निराकरण अभिप्रेत है। वे स्वयं तो योग-विषयक अपने ग्रन्थो मे किसी भी जगह प्रवेश अथवा कदाग्रह दिखलाते ही नही है । इसे उनकी मध्यस्थता कहनी चाहिए । यहाँ पर समालोचित हरिभद्र के योग विषयक चारों ग्रन्थो का उत्तरकाल मे कैसा प्रभाव पडा है - यह प्रश्न स्वभावत उठ सकता है । श्री श्रानन्दघन ने उनके इन ग्रन्थो मे से किसी न किसी ग्रन्थ का पय पान किया हो ऐसा लगता है, परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी ने तो उनकी योग-विषयक सभी कृतियो मे गहरी डुबकी लगाई है । उनकी 'आठ दृष्टिनी सज्झाय' नाम की गुजराती कृति योगदृष्टिसमुच्चय का सार है, ६८. एवमाद्यत्र शास्त्रज्ञैस्तत्त्वत स्वहितोद्यतं । माध्यस्थ्यमवलम्ब्योच्चैरालोच्य स्वयमेव तु || थात्मीय परकीयोवा क सिद्धान्तो विपश्चिताम् । दृष्टेष्टावाधितो यस्तु युक्तस्तस्य परिग्रह ॥ -- योगबिन्दु, ५२३-४ इसके साथ श्रा हेमचन्द्र द्वारा काव्यानुशासन की स्वोपज्ञ टीका 'विवेक' मे उद्धत (पृ. ६ ) नीचे के श्लोक की तुलना करो - उपशमफलाद्विघावीजात्फलं धनमिच्छतो भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् । न नियतफला कतु भावा फलान्तरमीशते जनयति खलु व्रीहेर्वीज न जातु यवाङ्कुरम् ॥
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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