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________________ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं कि साख्य जिसे प्रकृति के अधिकार की निवृत्ति कहते हैं उसीको जैन कर्मप्रकृति की तीव्रता का ह्रास कहते है।४३ हरिभद्र का यह तुलनात्मक दृष्टिविन्दु साख्य और जैन-परम्परा के बीच देखी जाने वाली अनेकविध समानता को विशेष अभ्यासी के लिए प्रेरणादायी बन सकता है । (४) वौद्ध परम्परा की - खास करके महायान की - एक परिभाषा के साथ जैन परिभाषा की तुलना करके हरिभद्र ने जो सार निकाला है वह उनकी गहरी सूझ बतलाता है । महायानी बौद्धो मे 'वोधिसत्त्व' पद प्रसिद्ध है। जो चित्त केवल अपनी मुक्ति मे ही कृतार्यता न मानकर सबकी मुक्ति का आदर्श रखता है और उसी आदर्श की सिद्धि का सकल्प करता है वह चित्त बोधिसत्व है। हरिभद्र कहते है कि यही वात जैन-परम्परा मे 'सम्यग्दृष्टि' पद से कही गई है। जब कोई जीव अपने ऊपर छाये हुए तीव्र क्लेशावरण के मन्द होने पर तथा मोहग्रन्थि का भेद होने पर योगाभिमुख होता है, तब वह अपने उद्धार के साथ विश्वोद्धार का भी महान् संकल्प करता है । जैनपरिभाषा के अनुसार ऐसा सकल्प करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव ही बौद्ध-परिभाषा के अनुसार बोधिसत्त्व है ।४४ परन्तु साथ ही हरिभद्र ऐसा भी सूचित करते हैं कि सभी देखो योगविन्दु४३ अत्राप्येतद्विचित्राया' प्रकृतेयुज्यते परम् । इत्यमावर्तभेदेन यदि सम्यग्निरुप्यते ॥१०॥ ....... एतन्निवृत्ताधिकारत्वम् । विचित्रायास्तत्सामग्रीवशेन नानारूपाया । प्रकृते कर्मरूपाया ।....... प्रकृतेर्भेदयोगेन नासमो नाम प्रात्मन । हेत्वभेदादिद चार न्यायमुद्रानुसारत ॥१६॥ प्रकृते परपरिकल्पिताया सत्त्वरजस्तमोरूपाया स्वप्रक्रियायाश्च ज्ञानावरणादिलक्षणाया |...... अविद्याक्लेशकर्मादि यतश्च भवकारणम् । तत. प्रधानमेवैतत् सज्ञाभेदमुपागतम् ॥३०॥ तथा देखो शास्त्रवार्तासमुच्चयमे - अत्रापि पुरुषस्यान्ये मुक्तिमिच्छन्ति वादिन । प्रकृति चापि सन्न्यायात् कर्मप्रकृतिमेव हि ॥२३२॥ अयमस्यामवस्थाया वोधिसत्त्वोऽभिधीयते । अन्यस्तल्लक्षण यस्मात् सर्वमस्योपपद्यते ॥ कायपातिन एवेह वोधिसत्त्वा. परोदितम् । न चित्तपातिनस्तावदेतदवापि युक्तिमत् ।। परार्थरमिको धीमान् मार्गगामी महाशय । गुणरागी तथेत्यादि सर्व तुल्य द्वयोरपि ॥
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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