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________________ योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता से प्रसिद्ध है । वैसे नामो की गिनती करते हुए वे प्रशान्तवाहिता, विसभागपरिक्षय, ० ये नाम अनुक्रम से पातंजल, बौद्ध, शिववर्त्य र वाधवा जैसे नाम देते हैं । ध्रु शैव एवं पाशुपत अथवा तांत्रिक जैसे दर्शनों मे प्रसिद्ध है । ८६ (३) महाभारत, गीता और मनुस्मृति जैसे अनेक ग्रन्थों का परिशीलन योगदृष्टिसमुच्चय में देखा जाता है। इनमे से गीता के परिशीलन की गहरी छाप हरिभद्र के मन पर अंकित देखी जाती है। गीता मे संन्यास और त्याग के प्रश्न की चर्चा विस्तार से आती है । गीताकार ने मात्र कर्म के संन्यास को संन्यास न कहकर काम्य कर्म के त्याग को संन्यास कहा है, " और नियत कर्म करने पर भी उसके फल के विषय मे अनासक्त रहने पर मुख्य भार देकर संन्यास का हार्द स्थापित किया है | २२ हरिभद्र जैन - परम्परा के वातावरण में ही पनपे हैं । यह परम्परा निवृत्तिप्रधान तो है ही, परन्तु सम्प्रदाय के रूप मे व्यवस्थित होने पर उसका बाहरी ढांचा पहले ही से ऐसा बनता रहा है कि जिसमे प्रवृत्तिमात्र के त्याग के संस्कार का पोषण अधिक मात्रा मे होता आ रहा था । हरिभद्र ने देखा कि वैयक्तिक अथवा सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित रखने के लिए अनेक प्रवृत्तियां अनिवार्य रूप से करनी पडती है । उनके सर्वथा त्याग पर अथवा उनकी उपेक्षा पर भार देने से सच्चा त्याग नहीं सघता, बल्कि कृत्रिमता आती है । योग ग्रथवा धार्मिक जीवन मे कृत्रिमता को स्थान नही हो सकता । इससे उन्होने गीता मे निरूपित संन्यास के दो तत्त्वों का निर्देश योगदृष्टिसमुच्चय में किया है । एक तो है काम्य तथा फलाभिसन्धि वाले कर्मो का ही त्याग और दूसरा है : नियत एवं अनिवार्य कर्मानुष्ठान मे भी प्रसंगता अथवा अनासक्ति । इन दो तत्त्वो को स्वीकार कर उन्होने इतर निवृत्तिप्रधान परम्परानों की भाति जैन - परम्परा को भी प्रवृत्ति के यथार्थ स्वरूप का बोध कराया है । (४) हरिभद्र स्वभाव से ही माध्यस्थ्यलक्षी है, इससे वे मिथ्याभिनिवेश या कुतर्कवाद का कभी पुरस्कार नही करते। उन्होंने योगदृष्टिसमुच्चय मे कुतर्क, विवाद र मिथ्याभिनिवेश के ऊपर जो मार्मिक चर्चा की है वह, मै जानता हूं वहां तक, किसी भी भारतीय योग-ग्रन्थ मे उस रूप मे उपलब्ध नही होती । भारतीय योग-परम्पराएँ किसी-न-किसी तत्त्वज्ञान की परम्परा के साथ जुड़ी हुई हैं | तत्त्वज्ञान २०. 'योगदृष्टिसमुच्चय' १७४ | २१ 'गीता' १८२ । २२ 'गीता' १८.६-६ । २३. 'योगदृष्टिसमुच्चय' १०२ - ५० ।
SR No.010537
Book TitleSamdarshi Acharya Haribhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages141
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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