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________________ अंतकृद्दशा परिचय ।। ब्रह्मचर्य, अकिंचनता (परिग्रह रहितपणुं), तप, त्याग, समिति, गुप्ति, तथा अप्रमादनो योग, उत्तम एवा स्वाध्याय अने समवायाङ्ग ध्यान ए बन्नेनां लक्षणो, तथा उत्तम संयमने पामेला अने परीषहोने जीतनाराने चार प्रकारना कर्मनो क्षय थये सते जे एन॥ प्रकारे केवळज्ञाननी प्राप्ति अने जे प्रकारे जेटलो पर्याय मुनिओए पाळ्यो, तथा पादपोपगमने पामेलो जे मुनिवर जे चोधु अंग। स्थाने जेटला भक्तपानने छेदीने अंतकृत अने अज्ञान तथा कर्मना समूहथी मुक्त (रहित ) थया, तथा ते अनुत्तर मोक्षसुखने पाम्या । आ अने एवा वीजा अर्थों अहीं विस्तारवडे प्ररूपाय छे । अंतकृतदशाने विपे वाचना परित्त छ, ॥२३४॥ अनुयोग द्वार संख्याता छे, यावत् संख्याती संग्रहणी छे, यावत् ते आ अंगार्थकपणाए करीने आठमुं अंग छ । आ अंगमां एक श्रुतस्कंध छ, दश अध्ययनो छे, दश वर्ग छे, दश उद्देशनकाळ छे, दश समुद्देशनकाळ छे, कुल संख्याता हजार पदो कह्या छ, संख्याता अक्षरो छे, यावत् आ प्रमाणे चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छ । ते आ प्रमाणे में अंतकृतदशा कही ॥८॥ सूत्र-१४३ ॥ टीकार्थः-'से किं तमित्यादि'--हवे कइ ते अंतकृद्दशा छ ? तेमां अंत एटले विनाश, ते कर्मनो अथवा कर्मना फळरूप संसारनो जेमणे विनाश कयों छे ते अंतकृत एटले 'तीर्थकरादिक कहेवाय छे, तेना प्रथम वर्गमां दश अध्ययनो छे, तेथी ते संख्याने लइने अंतकृतदशा कहेवाय छे । ते ज कहे छे--'अंतगडदसासु णं' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष १ यौगिक अर्थ लेवाथी तीर्थकरादिक पण अंतकृत् कही शकाय छे, परंतु अंतकृत् सूत्रमा तो भवप्रांते केवळी थइने मोक्षे । गया तेना ज अधिकार छे. . ॥२३४॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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