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________________ समवाय ८०००। Anam मू०--सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा पन्नत्ता । १॥ ६००० ॥ सूत्रम्-११९ ॥ समवायाङ्ग मूलार्थ:-सहस्रार कल्पने विपे छ हजार विमानो कह्या छ (१)॥ ६००० ।। सूत्र-११९ ॥ सूत्र॥ - हवे सात हजारमुं स्थान कहे छेचोधु अंगा मू०--इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ पुलगस्स ॥२०६॥ कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पन्नते।१॥७०००॥सूत्रम्-१२०॥ मूलार्थ:-आ रत्नप्रभा पृथ्वीना रत्नकांडना उपरना छेडाथी पुलगकांडना नीचला छेडा सुधी सात हजार योजनअबाधाए आंतरं कर्तुं छे (१)।७०००॥ टीकार्थ:-'इमीसे णमित्यादि-रत्नकांड पहेलो छे अने पुलककांड सातमो छे, तेथी सात हजार योजननु आंतरं थाय छे (१)॥ ७००० ॥ सूत्र ॥१२०॥ - हवे आठ हजारमुं स्थान कहे छे मू०-हरिवासरम्मयाणं वासा अट्ठ जोयणसहस्साइं साइरेगाइं वित्थरेणं पन्नत्ता।१ ॥८०००॥ सूत्रम्-१२१॥ मूलार्थः-(जंबूद्वीपमा आवेला) हरिवर्ष अने रम्यकक्षेत्रनो विस्तार सातिरेक आठ हजार योजन कह्यो छे (१) ॥८०००॥ ॥२०६॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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