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________________ । समवाय ७९॥ एंशी हजार योजन- अबाधाए आंतरं कह्यु छे (३)। जंबूद्वीप नामना द्वीपना दरेक द्वारर्नु अबाधाए आंतकै काइक अधिक समवायाङ्ग ओगणएंशी हजार योजन- कछु छ (४)॥ टीकार्थ:-हवे ओगणएंशीमा स्थानक त्रिपे काइक लखे छे-तेमां 'वलयामुहस्स त्ति'-वडवामुख नामना चो, अंग पूर्व दिशामा रहेला 'पायालस्स त्ति'--महापातालकळशना नीचेना चरमांतथी रत्नप्रभा पृथ्वीनो चरमांत ओगणएंशी हजार योजन दूर छे. केवी रीते ? ते कहे छे--रत्नप्रभा पृथ्वीनु बाहल्य एक लाख ने एंशी हजार योजननुं छे, तेमांथी एक ॥१७४॥ 2 हजार योजन समुद्रनो अवगाह छे ते बाद करयो, तथा तेनी नीचे एक लाख योजनना अवगाहवाळो वलया( वडवा )मुख पाताळ कळश छे तेथी ते लाख पण बाद करवा, तेथी तेना चरमांतथी पृथ्वीनो चरमांत कहेला प्रमाणवाळु एटले ओगण- एंशी हजार योजनना प्रमाणवाल्लु आंतरं थाय छ (१)। एज प्रमाणे बाकीना त्रण कळशो संबंधी अंतर कहेवू (२)। 'ट्ठीए इत्यादि'--आनो भावार्थ आ प्रमाणे छे--छट्ठी पृथ्वीनुं बाहल्य एक लाख ने सोळ हजार योजन छे, परंतु साते घनोदधि तो वीश वीश हजार योजनना होवा जोइए, तोपण आ ग्रंथना मते करीने तो छठी पृथ्वीमा रहेलो आ घनोदधि एकवीश हजार योजननो संभवे छे. तेथी करीने छठी पृथ्वीना बाहल्यनुं अर्ध करवाथी अहावन हजार योजन अने घनोदधिनुं प्रमाण एकवीश हजार योजन ए बन्ने भेगा करवाथी ओगणएंशी हजार योजन थाय छे, परंतु ग्रंथांतरना मते करीने तो सर्व घनोदधिर्नु बाहल्य वीश वीश हजार योजन होवाथी पांचमी पृथ्वीने आश्रीने आ सूत्र होवु जोइए; केमके ते पांचमी पृथ्वीनु बाहल्य एक लाख ने अढार हजार योजननु का छे. (तेनुं अर्ध ५९ हजार अने घनोदधिना २०००० ॥१७४॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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