SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोथुं अंग ॥१०२॥ • आटलं ज ( उपर जे आचारप्रकल्प विपे क ते ज) आचरवा लायक छे एम पण जाणवुं. (१) । ते ज प्रमाणे देवगतिना सूत्रमां स्थिर - अस्थिर, शुभ-अशुभ अने आदेय - अनादेयनुं परस्पर विरोधिपणुं होवाथी एकी समये बन्नेनो बंध न होवाथी 'अन्यतरत् ' - एटले बेमांथी एकने वांधे छे एम कहूं. आ ठेकाणे मूळ सूत्रमां ' एक ' शब्दनुं ग्रहण कर्युं छे ते भाषा मात्र ज जाणवुं ( एटले के ' अन्यतरत् ' ए शब्द आप्यो छे तेनो अर्थ 'बेमांथी एक ' एवो थाय छे तेथी फरीथी 'एक' शब्द लखवानी जरूर नथी छतां ' अन्यतरत् एकं ' एम भाषानी शैलीने लीधे लख्युं छे.) तथा नरकगतिना सूत्रमां वीश प्रकृतिओ तो ते ने ते ज राखवी, अने आउने स्थाने बीजी आठ बांधे छे. ते ज कहे छे -' एवं चेव ' इत्यादि. 'मां' नानात्वं' एटले विशेष. ( जे आठ प्रकृतिमां विशेष छे ते मूळमां ज बतान्युं छे तेथी अहीं टीकामां कांइ लखवानी जरुरीयात नंथी ) ५ ॥ सूत्र- २८ ॥ वे ओगणत्रीश स्थानक कहे छे मू० - एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे णं पन्नत्ते, तं जहा - भोमे १, उप्पाए २, सुमिणे ३, १ अहीं २० प्रकृति देवगति प्रमाणे न बांधवानुं कयुं छे ते बराबर छे. जो के तेमां देवगति देवानुपूर्वीने बदले नरकगति नरकानुपूर्वी बांधे छे ते परावर्तमान गणी छे. बीजुं ८ मां स्थिरास्थिर शुभाशुभ ने आदेयानादेय. ए त्रण द्विकमांथी देवगतिमां एकतरत् (एक) बांधे छे एम समजवुं. समवाय २९ ॥ ॥१०२॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy