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________________ S श्री समवायाङ्ग ॥४५॥ निमेषोन्मेष कर्या विना स्थिर रहीने कायोत्सर्ग करवानो छ (१) तथा सम् एटले एकपणाए करीने ( साथे रहीने) सरखा आचारवाळा साधुओर्नु जे भोजन (भोगवटो) ते संभोग कहेवाय छे. ते संभोग उपधि विगेरे स्वरूपवाळा विषयना भेदथी बार प्रकारनो छे.-तेमां 'उवही.' इत्यादि बे गाथाओ मूळमां आपी छे, तेमां उपधि एटले वस्त्र-पात्र विगेरे, ते उपधिने संभोगिक साधु बीजा संभोगिक साधुनी साथे रहीने उद्गम, उत्पादना अने एषणाना दोष रहित विशुद्धने ग्रहण करे तो ते शुद्ध जाणवो अने अशुद्धने ग्रहण करे तेम ज तेने बीजो प्रेरणा करे त्यारे ते प्रायश्चित्त ग्रहण करे. आ रीते त्रण वार अशुद्ध ग्रहण करी त्रणे वार प्रायश्चित्त ले तो ते त्यां सुधी ज संभोगने लायक छ, अने चोथी वखते प्रायश्चित्त अंगीकार करे तो पण ते विसंभोगने ज लायक छे, एम जाणवू. वळी ( संभोगिक साधु ) विसंभोगिकनी साथे अथवा पासत्थादिकनी साथे अथवा साध्वीनी साथे रहीने कारण विना शुद्ध अथवा अशुद्ध उपधिने ग्रहण करे अने बीजानी प्रेरणाथी प्रायश्चित्त ग्रहण करे तो पण ते त्रण वार पछी चोथी वारे असंभोग्य थाय छे. ए ज प्रमाणे उपधिनुं परिकर्म (साफसुफ) अने परिभोग ( भोगवटो) करनार साधु संभोग्य अने असंभोग्य थाय छे. ते विषे कयु छ के-" एक बार, वे वार के त्रण वार आलोचना करनारने प्रायश्चित्त होइ शके छे. त्यारपछी-त्रण वार प्रायश्चित्त लीधा पछी आलोचना करे तो पण ते असंभोग्य थाय छ।१।" (१) तथा 'सुय'संभोगिक साधु के अन्य सांभोगिक साधु पोतानी पासे श्रुत भणवा आव्यो होय, तेनी पासे पोते विधिपूर्वक वाचना, पृच्छना विगेरे करे तो ते शुद्ध छे. परंतु ते आवनार (साधु ) अविधिथी प्राप्त थयेल होय, अथवा ( भणवाना इरादाथी) प्राप्त ॥४५॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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