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________________ स्थिति दश सागरोपमनी कही छे (१३) । जे देवो घोष, सुघोष, महाघोष, नंदिघोप, सुस्वर, मनोरम, रम्य, रम्यक, रमणीय, मंगलावर्त अने ब्रह्मलोकावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति दश सागरोप मनी कही छे (१४)॥ - ते देवो दश अर्धमासे ( दश पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने दश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) एवा केटलाक भवसिद्धिया जीवो छे के जेओ दश भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण (परम शीतळता ) पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३) टीकार्थ--आ दश स्थानकनुं सूत्र सुवोध छे, तो पण काइक लखाय छे-अहीं सर्व मळीने पचीश सूत्रो छे. तेमां लाघव एटले द्रव्यथी अल्प उपधि राखवी ते अने भावथी गौरव( ऋद्धि, रस अने साता गौरव )नो त्याग करवो ते. तथा त्याग एटले सर्व संगनुं वर्जq अथवा संविग्न अने मनोज्ञ साधुने दान आपq ते, तथा ब्रह्मचर्यवडे जे रहे, ते ब्रह्मचर्यवास कहेवाय छे (१)। तथा चित्त एटले मननी समाधि एटले समाधान अर्थात् प्रशांतता, तेना स्थानो एटले आश्रय अथवा भेदो ते चित्तसमाधिस्थानो कहेवाय छे, तेमां धर्मों एटले जीवादिक पदार्थोना उपयोग, उत्पत्ति विगेरे स्वभावो, तेमनी चिंता एटले विचार, अथवा तो सर्वज्ञे कहेलो श्रुतचारित्ररूप धर्म हरिहरादिकना कहेला धर्मथकी प्रधान-उत्तम छे एम जे विचार ते धर्मचिंता कहेवाय छे. अहीं 'वा' शब्द लख्यो छे ते आगळ कहेवाशे एवा बीजा समाधिस्थाननी अपेक्षाए विकल्प ( अथवा )ना अर्थवाळो छ (एज प्रमाणे सर्व 'वा' शब्दो जाणवा). ' से ' एटले जे कल्याणने भजनार ( उत्तम)
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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