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________________ * महावीरस्मृति मंध लिये सावधान किया 1 मानव हतबुद्धि होकर भयकर सर्प बन गया तो क्या उसके अशोभन मूर कार्यसे घट होकर विवेकी अपना आर्यधर्म मुला दे। नहीं ! महात्माजाने कहा कि बदसे द्वेष नहीं मिटता, बल्कि प्रेम और क्षमासे द्वेषका अन्त किया जा सकता है ! म० महावीरनेभी कहा था कि 'शान्तिसे क्रोधको जीतो।' (उपसमेण हणे कोह)। इसतरह हम पाते हैं कि म० गाधीद्वारा भ. महावीरके अदिष्ट सिद्धातोंकाही प्रसार हुआ था। म० गाषी खानपानमें पूर्ण शाकाहारी और दिवाभोजी तो थेही, पर परीक्षाके समयमभी वह उसपर दृढ रहे। एक बार उनके पुत्र मणिलालनीको तीव्र ज्वर हुआ और डाक्टरने मुर्गीके अडेका थोरवा एकमात्र औषधि निर्धारित की ! औषधित्ममें एक अबोध बच्चेको अखेका शोरवा देनमें डास्टरने कोई हर्ज न समझा और गाधीजीसे जोर देकर कहा कि दीजिये उसे । हिन्दू घरोंमें आये दिन ऐसा होता है। किन्तु म० जीको डाक्टरकी यह बात नहीं रुची। पुत्र मोहमें वह स्वधर्मसे विचलित नहीं हुये। चोरवा नहीं दिया, बल्कि पानीका इलाज किया। मणिलालनी अच्छे हो गये। इस हततासे वह खानपानमें अहिंसाका ध्यान रखते थे। यद्यपि म० बी अपनेको 'वैष्णव' कहते थे, क्योंकि वह जन्मतः वैष्णव थे, पर वह वैष्णवका वडा व्यापक अर्थ करते थे। जिसके कारण कहना होगा कि वह सम्प्रदाय और जातिकी सीमासे ऊपर उठ गये थे। वे गुणके पुजारी थे। इसी लिये तो उन्होंने हरिजन उद्धारकी बात कही और भगी वस्तीमें व्हरे। भ० महावीरके इस उपदेशको उन्होंने मूर्तिमान बनाया था कि अची जातिमें जन्म लेनेसे कोई ऊचा नहीं होता। मनुष्य अपने कर्मसे ब्राह्मण होता है, कर्मसे क्षत्रिय होता है, कर्मसे वैश्य होता है और कर्मसे शूद्र होता है। जैनोंकी तरहही म. जी प्रत्येक जीवको ईश्वरस्म मानते थे। वह ईश्वरको मानव हृदयमें विराजमान बताते थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि " मेरा ईश्वर तो सत्य और प्रेम है। नीति और उदाचार ईश्वर है, निर्भयता ईश्वर है, ईश्वर प्रकाश और जीवनका मूल है। ईश्वर अन्तरामा है। ईश्वरके उतनेही नाम हैं जितने पृथ्वीपर प्राणी और इसलिये हम उसे बिना नामकामी कहते है और चूंकि उसके अनन्त रूप में इस लिये हम उसे अरूपभी कहते हैं। " (नवनीवन, ५.३.२५) श्री समन्तभद्राचार्यजीने अहिंसाकोही परमब्रह्म घोषित किया था। जैनधर्ममें सत्य-अहिंसादि व्रतों के साथ सल्लेखना ब्रतना विशेष महत्व है। सलेखना ब्रत समतासे मरनेकी कलाको सीखना ई-गवर देह और शाश्वत आत्माको पहिचानना है। अतएव उपसर्ग होने परमी युद्ध में शत्रुसे मर्माहत होने परभी समतापूर्वक मरनेकी कलाको सीख लेना सल्लेखना है। मापने इस तलको माना था और स्पष्ट कहा था कि " मरनेका इम सीखनेके वादही धर्ममें ताकत पैदा होती है। धर्म वृक्षको मरनेवालेही सींचते हैं। बहादुर लोग मरते मरतेभी मारनेवागेकी शिकायत नहीं करेंगे । न उन्दै सजा दिलवाने की बात सोचेंगे, वोकि मारनेवाले सजासे छूट जानेवाले नहीं है। इन तो मरने वचमी सनका, मारनेवालोकाभी मला चाहनेकी कोशिश करते हुये
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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