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________________ भ० महावीर-स्मृति-प्रथ। अर्थात् - 'जो भी उस प्रकारका आहार करता है, वह पापको न जाननेवाले अनार्य मानवकी सेवा करता है , परतु कुशल मनुष्य मास भक्षणके पापको जानता है, उसकी अभिलाषामी मनमें नहीं करता है-ऐसी (मास मोनन-विधान जैसी) मिथ्या वाणी बोलतामी नहीं!' इस प्रकार जैन और बौद्ध अहिंसाका अन्तर स्पष्ट है। ____ यही हाल कर्मसिद्धातका है। महावीरके समानही बुद्धमी कर्मसिद्धातको स्वीकार करते प्रतीत होते हैं । बुद्ध इस वादको मानते हैं कि प्रत्येक प्राणी अपने किये हुये शुम अथवा अशुभ काका फल पाता है ! जबतक रूप, वेदना, सस्कार और विज्ञानको सतान चलती रहेगी तबतक अनेक जन्मोमें प्राणीको भ्रमण करना पडेगा। जब सब आसव क्षीण होंगे, तब क्षय होगा और क्षयसे निर्वाणकी प्राप्ति होगी। किन्तु इस विवेचनसे यह स्पष्ट नहीं कि बुद्धभी महावीरके अनुरूप कर्मको एक विशेष सूक्ष्म पुद्गलकी आस्मा पर प्रक्रिया रूप मानते थे, जो आलव (आगमन), बघ (= स्थिति-विपक) और निर्जरा (= क्षय) की अवस्थाओंसे युक्त है। अलवत्ता चौद्धसाहित्यमें निम्न प्रकार आलय और संवर शब्दोंका प्रयोग हुआ मिलता है: (१) 'भासवा संवरा यहा तम्या ( आत्रयोंको सवरसे दूर करना चाहिये). (२) 'मिस्खु सम्वासन सबेर सवुतो विहरन्ति ' (= मिक्षु सर्व आतयोंका सवर करता हुमा विहार करता है)। -मझिमनिकाय, इत्तियमुत्त, सम्वासव सुत्त । (३) 'जिसकर्मफलके लिये अनेक सौ वर्ष, अनेक हजार वर्ष नमें पचना पडता उस कर्मविपाकको ब्राह्मण, तू इसी जन्ममै भोग रहा है।' -बुद्धचर्या पू० ३७० ( अगुलिमालसुत्त) इन उद्गारोंमें भासव, सदर और कर्मविपाक शब्दोंका प्रयोग हुआ है, जिनसे यह ध्वनित होता है कि युद्धभी कर्मयुद्गलका आना और फल देना मानते थे, परंतु उन्होंने 'वन्ध तत्वका । जनकी तरह नहीं माना है। इस लिये यह शकास्पद है कि उन्होंने महापौरके समानही कर्म-पद्धलको . आसव, ग्रंघ, सवर और निर्जरा माना है। यह और निर्जरा नामक तत्व बौद्धधर्ममें नहीं है। इस प्रकार वाघ सादृश्य होते हुयेमी दोनों धोकी मान्यतालोंमें अन्तर है। १. जैन-बाद तत्वज्ञान (सूरत), पृष्ट १४४-१५३. Bandha--- In Jainism it means bondage .In Buddhism, it means SamyaJan_Nirmari-There is nothing like this in Buddhism. -DI B C Law, 4A, DL, PhD, D Litt (Foreword to Bhagawāna Mahäsira Aur Alahitmi Buddha, p 11). हासबके विषय में कोचीने लिखाया कि विचार पर विशेष समर करनेवाले वाध जगतके प्रभाव हो और जय कहते हैं। सह भार निधर्मके शास्त्रचने प्रकट होता है, क्योंकि जाप पर कर्मपदल भगर करना है, यह मान्यता हेरस अनदर्शनही है। अनधर्म (गुजराती) १४.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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