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________________ २८४ भ० महावीर-स्मृति-ग्रंथ। मानव हृदयमें घुसा हुवा है। जबकि शान्ति स्थापनाके लिये इसके विरुद्ध " जीवित रहने' और दूसरोंको जीवित रहने देने" (To live and to let live) की उस भावना जागृत करनेकी आवश्यकता है। दूसरे शब्दोंमें जो मानव ससारमें शान्तिका साम्राज्य देखना चाहते हैं उनको सबसे पहले मानव हृदय तक अपनी पैठ कर लेना आवश्यक है और उसमें लामाकांक्षा अथवा फैशनके स्थानपर दूर और पासके पडोसीके प्रति प्रेमभाव एव प्रत्येक जीवित प्राणिके लिये आदर और स्नेहका श्रोत बहाना आवश्यक है । क्योंकि जबतक मानव प्रत्येक प्राणिक जीवनका आदर नहीं करेंगे, तबतक यह समय नहीं कि वह अपने पडोसीसे प्रेमन्यवहार कर सकें। । बदि मानव समस्त प्राणियोंको आदर-दृष्टीसे नहीं देखेगा, तो वह किसीभी प्राणी का आदर करही नहीं सकेगा । अलबत्ता जब उसका कुछ मतलव सधता होगा तो वह अवश्य दूसरेके प्रति मालमनसीका बर्ताव करेगा । जरा पशुससारको देखिये ! उनमें भशान्ति उन्हीं पशुओंके कारण उत्पन्न' होती है, जो अपने साथी पशुओंका शिकार करते और उनको निगल जाते हैं। शाकमोजी पशुओंमे यह अशान्ति देखनेको भी नहीं मिलती। हिरन, गाय, कबूतर, किसीको कष्ट नहीं देते--कृष्ट पहुचानेवाले तो मेडिया, चीता बाज वगैरह हैं जो हमेशा मारकाट और अशान्ति बढाने में लगे रहते हैं। यह नियम सर्वथा सर्वत्र लागू है। ___ अब प्रश्न यह है कि मानवका हृदय-परिवर्तन कैसे किया जावे! बाइबिलकी ठीक शिक्षा है कि 'अपने पडोसी पर वेसेही प्यार कर जैसे तु अपने पर करना है। ' ( Love thine netghbour as thyself') किन्तु इस शिक्षाका प्रभाव लोकजीवन पर नहीं पड़ा। इसके दो कारण है। (१) ईसाई लोकका विश्वास है कि वाइविल केवल मानवोंके प्राणोंका आदर करनेका उपदेश देती हैउसका प्रेमसिद्धात प्रत्येक प्राणिसे लागू नहीं । पशु तो मानव मोजनके लिए बने समझ लिए गए है । इसी कारण साधारण मानव जीवनकी इस पवित्रतासे वाकिफ और प्रभावित नहीं हुआ। दूसरे आजकल विचारस्त्यातव्य अपने चर्मसीमा पर पहुचा हुआ है, जिसके साथ माननपर उन आनाओं और प्रथाओंका प्रभाव नहीं पड सकता जो तर्कसिद्ध न हो। इसीलिये कोई दूसरा गाल तमाचेके लिये पेश नहीं करता, और, न कोटके दावेके जबाबमें कोट व उवादेको बक्श देता है। बाइबिल एव अन्य धर्मोके प्रथ अस्कृत भाषामें होने के कारण विछा समझाये ठीकसे नहीं समझे जाते। . - अतः जैनधर्मके अनुसार प्रेमसिद्धान्त - अहिंसाका वैज्ञानिक परिचय जानना जरूरी है। उसका परिचय मानवको अपने साथियोंके साथ शातपूर्वक रहना सिखा देगा। भारतवर्ष हम अहिंसावादी लोग अशातकालसे शान्तिपूर्वक रहे थे किन्तु पाश्चात्य राष्ट्र और संस्कृतिके आक्रमणके कारण हमारीमी शान्ति मना कर दी गई है। भारतीय जनताभी प्रेमसिद्धान्तकी अवश करने लगी और शक्तिहीन होगई । विरोधियोका सामना करनेका बल और संगठन उसमें नरहा । जैनधर्म युद्धके सर्वथा विरुद्ध नहीं है । जनमत केवल आत्मरक्षाको बेडकर शेष सब दशाओंमें उसका निषेध करता है। यदि आप पर कोई आक्रमण करे तो भापको अवश्य अपनी रक्षा करनेका अधिकार है। किंतु आपको स्वय किसी शान्तिपय व्यक्ति या राष्ट्रपर आक्रमण करनेकी धृष्टता नहीं करना चाहिये ।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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