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________________ ओ वर्धमान ! (श्री. सुरेन्द्रसागरजी जैन, 'प्रचंडिया' साहित्यभूषण, कुरावळी) , मानवता को भकार ! मसुधाळे चिर अक्षण विराम ! श्री वर्धमान ! पतितोद्धारक, ज्योतिर्मय, विभु! शतकात प्रणाम !! प्रफटे तुम भू पर लेकरके दानवताका संहार सुखद फिरसे इस जगतीमें लाए मानवताका श्रृंगार सुखद, अरुण, निर्दय जगमें लाए करणाका पारावार भगम, श्रावर्तित करने इस जगको लाए नवीन संसार सुगम, तुम महामनस्वी युग नेता, युग निर्माता अतिशय ललाम! __ यो वर्षमान पतितोद्वारक, ज्योतिर्मप, विभु ! शतशत प्रणाम !! जर्नरित अकिंचन मानवको, एकाकी तुम कल्याण बने, भत्याचारोंसे दली-भरी निषाण घराको प्राण यने, लेरही सम्यता वासे भो अन्तिम, उसको पविमान बने, युगयुगकी शापित जगतीको चमकीले तुम वरदान बने, अन्नान-अधेरी हुयी दूर, सपिता बन चमके ज्ञान-धाम ! ओ वर्तमान पतितोद्धारक, ज्योतिर्मय, विमु शतशत प्रणाम !! तुमने अंगारे घूम चुम अगतीका ताप किया शीतल, तुमने उद्बोधन दे देकर यह जगत जगाया प्रति पलपल, तुमने मदिराके चपकोंमें सद्ज्ञान-सुधाको भरवाया, तुमने संतोषित किया उसे जो पास तुम्हारेमी आया, तुमसे वह वाणी नजित हुयी, हो गया मुदित सुन ग्राम-ग्राम। " ओ वर्द्धमान, पतितोद्धारक, ज्योतिर्मथ, विमु ! शतशत प्रणाम ।। अपरिग्रह, सत्य, अहिंसासे प्यासी दुनियाँको सीच दिया, मातु-मनुन-मेध, भज-वाधको तो, हिंसाको तुमने दूर किया, फूटीं नव संस्कृतिकी किसलय भत्रण मृदुतादिक धर्म लिए, आनन्दित जगतीका कण कण हो गया चिन्तन मर्म लिए, तुम हृदय हृदयमें बसे, बने जगके हृदयेश्वर कोटि नाम ! भी बर्द्धमान ! पतितोद्धारक, ज्योतिर्मय, विमु शतशत प्रणाम !! लो, आज परिस्थिति ठीक वही, सघर्ष, दैन्य, शोपण, छलपल, सम्पत्ता भन्यता मिटी सकल परिन्याप्त पहूँ दिशि है हलचल, भतएवं चीखती 'वैशाली' मेरे लिच्छिवि भगवान कहाँ ? कण कण वसुधाका बोल रहा करुणाके अहो निधान कहाँ कितनीही मौन पुकारें हैं अय बुला रहीं प्रति दिवस-याम "ओ मानवताके अलंकार, वसुधाक चिर अक्षय विराम 1 " "ओ वदमान | आओ मामओ, ज्योतिर्मय विभु पातशत प्रणाम !" २८२
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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