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________________ श्री०- कामताप्रसाद जैन । गणना की गई है। उसी ग्रंथमें ऋषमदेवको निर्मन्य तीर्थकर लिखा है। इसके अतिरिक्त मोइनजोदडोकी प्राचीन मुद्राओंपर कायोत्सर्ग आसन और नासाग्रभाग-दृष्टि-युक्त ध्यानमुद्रामें नम योगियोंकी आकृतिया अङ्कित हैं; जो बिल्कुल तीर्थक्कर ऋषभकी मूर्तियोंके अनुरूप है। ऋषभदेवका चिन्ह बैलभी उन मुद्राओंपर मिलता है; अतः वे मुद्रायें ऋषभमूर्तिके पूर्व-रूप हैं और उनके अस्तित्वको प्रमाणित फरनेके लिये पुष्ट प्रमाण । फिर हम क्यों शङ्का करें कि ऋषभदेव ऐतिहासिक महापुरुष नहीं हैं। वे महावीरके समानही लोकोद्धारक तीर्थङ्कर थे। ऋषभदेवभी तीर्थकर थे और महावीरभी। किन्तु दोनोंका कार्यक्षेत्र और कार्यकाल भिन्न था। 'अभदेव कर्मभूमिके प्रारंभमें हुये थे, जब मानव सभ्य और संस्कृत नहीं हुआ था । मानव प्राकृत जीवन विताता था। विशेष प्रकारके वृक्षोसे अपनी आवश्यकताओंकी पूर्ति करता था। कई मनु महाराजोंने उसे जीवन निर्वाह और घर-कुटुम्बकी बोवें सिखाई थीं; किन्तु फिरमी वह सभ्य और सुसकृत न हुआ था-आरमस्वरूपका वोघ उसे नहीं था। ऋषभदेवने पहलेही पहले मानवको लौकिक जीवन व्यवहार और परम आत्मधर्मकी शिक्षा दी थी । अपनी बाझी नामक पुत्रीको 'उन्होंने सर्व प्रथम 'लिपिज्ञान कराया था। इसीकारण वह लिपि 'ब्राझी लिपि ' के नामसे प्रसिद्ध हुई। असि-मसि-कृषि वाणिज्य-शिल्पादि सत्कर्म करनेको ज्ञान उन्होंने अपने समयके भोलेमाले मानवको कराया । मानव 'कुल' बनाकर रहना सीखा और समाज व्यवस्थाका सृष्टा हुआ । क्षत्रियोको देश-रथाका मार सौंपा गया इसलिये वह राजा हुये । वैश्योंको राष्ट्रको समृद्धिका कार्य सभाला गया राष्ट्रोन्नतिकी रीढ यह हुये । शूद्र विविध शिल्प-विद्याओंको आगे बढाने के लिये नियत हुये । ऋषभदेवने यह वर्गभेद राष्ट्रहिवसे प्रेरित होकर किया था। यह वर्गभेद मानव-मानवमें ऊच-नीचका भेद नहीं करता था। तबही तो यह सभव हुआ था कि भरत चक्रवर्तीने तीनों वर्गों क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंमेंसे श्रेष्ट मेधावी और चारित्रवान् पुरुषोंको चुनकर उनका ब्राह्मण वर्ग स्थापित किया था। किन्तु ऋषमदेव अपने समयके मोले मानवको लोकव्यवहारमें सम्य और संस्कृत बनाकर संतुष्ट नहीं हुये, उन्होंने मानवको आत्मधर्मकामी बोध कराया । आमेवोधिकेविना मानवकी ऐहिक उन्नति पङ्गु रहती है। १. "नामिनो ऋषमपुत्रो वे स सिद्धकर्म दृढन्नतः ॥" "ऋषभस्य भरतः पुत्रः सोऽपि मन्त्रान् तदा जपेत् ॥" एते चाऽन्ये च बहछ पार्थिवा लोकविश्रुताः ॥" --एन इम्पीरियल हिस्ट्री ऑफ । । इडिया, पृष्ठ १२-१३. २. “कपिल-मुनि म ऋषिपरो, निम्रन्थ-तीर्थकर ऋषमः निग्रन्थ रूपी 1" इस उल्लेख पर प्रो. हेल्मथ फॉन ग्लासेनापका निम्न वक्तव्य महत्वपूर्ण है.' ." It is very interesting to note that, together with the founder of Sankhya philosophy, the first Tirthankara of the Jainas appears in a Buddhist mandala. The reason is obvious If the Buddhists wanted to give a complete symbolical picture of the world and the great beings who influenced its destinacs 10 8 mandala, they could not omit the great prophet of a religion which though oot in accord with their own, had aoquired glory all over | India." - Prof. H. v. Glasenapp, Ph. D. JAINA ANTIQUARY, VOL. III P. 47)
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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