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________________ महावीर! विश्वभूति भ० महावीरको ज्ञानसाधना । (श्री सुरेन्द्रसागरजी, 'प्रचडिया' ।) घालं असा ज्यो प्रखर प्रतापसे सोचा यह व्यर्थ जंजाल! चढता मध्यान्हको है! छोड दिया राज पाठ! उसी विधि महावीरजी छोडे जगतीके ठाठ! ज्ञान बुद्धिशौर्य वीर्य बल विक्रम वैभव विलास छोड़ा, समेतसे ममतासे बन्धन तोडा शैशवको पार कर लात मार दी थी उस ऐसी विभूतिमें ! तरुण-अरुण कान्ति-मान तीस बरसकी यौवनमयी भायुमें तेजमान-ओजमान बाल ब्रह्मचारी कर्मवीर भारजित प्रभावान सुकुमार हो चले वयस्क थे! ज्ञानकी पिपासा हित धूर्मे वन-वन! मुख-श्री देखनेको व्याकुल रहे क्षन क्षन !!" लोचन समीके सदा केवल सज्ञान हिता रहते लालायित थे ! लोक कल्यान हित!! किन्तु महावीरनीकी गति विधि विचित्र कंचन-सी काया को थी! तपके दग्ध-दाहमें उन्होंने निज सुक्ष्म दृष्टि से देखा समाजको होम कर करलिया प्रभूत पूत! सुना निरीह पशुओंकी आवाजको ! सज्ञान स्त्रोत हो गया प्रसूत !! दीन-हीन देखे जन देखा उन्होंने था-निज भाँखा लोकहित कामनासे से नरमेध! फैलाने मन्य भावनाको देखा उन्होंने था-निज आँखोंसे , सर्व प्रथम उनही प्रवीर जीने अश्व-मेध !! "बिपुल अचल " से प्रसारित किया भाँख-पाखोंसे मनु-धार दर चली! दिग्य ज्ञान! समको आधात हुआ! उसी दिनसे प्रारम किया करना हो गया हृदय दयासे परिपूर्ण! जग-कल्पान!" •
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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