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________________ श्री कृष्णदत्त वाजपेयी। १९१ खि प्रस्तुत लेख द्वारा यह धारणा भ्रात सिद्ध हुई और यह प्रमाणित होगया कि बौद्ध स्तूपोके बननेके कई शताब्दी पूर्व जैन स्तू? आदिका निर्माण हो चुका था। इस लेखकी पुष्ठि साहित्यिक प्रमाणोंसेभी होती है जिन्हें ब्यूलर, स्मिय आदि पाश्चात्य विद्वानोंनेमी स्वीकार किया है। सबसे पहले ब्यूलरने जिनप्रमरचित 'तीर्थकल्प' की ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया, जिसमें प्राचीन प्रमाणोंके आधार पर मथुराके देवनिर्मित स्तूपकी नींव पडने तथा उसको मरम्मत कराने आदिका वर्णन है। इस ग्रन्थके अनुसार यह स्तूप पहले स्वर्णका था और उस पर अनेक मूल्यवान पत्थर जड़े हुए थे। इस स्तूपको कुवेरा देवीने सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथके सम्मानमें स्थापित कराया था। तेईसवें जिन पार्श्वनायके समयमें इस स्वर्ण-स्तूपको चारों ओर ईंटोंसे आवेष्टित किया गया और उसके बाहर एक पाषाण-मदिरकामी निर्माण किया गया। 'तीर्थकल्प' से यहमी पता चलता है कि भगवान महावीरकी ज्ञान प्राप्तिके १३०० वर्ष बाद मथुराके इस स्तूपकी मरम्मत बप्पम परिने कराई । भगवान् महावीरका उक्त समय छठी शती ई० पू० का मध्य मानने पर स्तूपकी मरम्मत करानेका काल आठवीं श० के मध्य भागमें आता है । अतः यह निश्चित है कि इस काल तक ककाली टोलेपर उक्त स्तूपका अस्तित्व या । पाचवीं शतीमें मथुरा पर आक्रमण करने वाले हूणोंने सभवतः इस स्तूपको नष्ट करनेसे छोड दिया । दसवीं तथा ग्यारहवीं शतीके दो अमिलेखोसे पता चलता है कि कमसे कम १०७७ ई. तक कंकाली टीलेपर जैन स्तूप तथा मदिर बने हुए ये ।३ समवतः देवनिर्मित स्तूपकामी अस्तित्व इस काल तक रहा होगा क्योंकि बप्पमट्ट परिने लगभग तीन शताब्दी पहलेही उसकी मरम्मत करा दी थी और उसके अनतर १०७७ ई० तक नाक्रमणकारियोंका विश्वसक हाय इघर नहीं बढा था। मगवान पार्श्वनायका समय, जब कि 'बोद्ध' स्तूपका पुननिर्माण कराया गया, ६०० ई० पू० से पहलेका है, क्योंकि वे भगवान महावीर (ई. पू० ५९९-५२७) के पूर्वज ये । द्वितीय शती ई० में स्तूपका यही पुनर्निर्मित रूप जनताके समक्ष था, जिसके कला-सौंदर्य पर मुग्ध होकर जनताने उसे 'देवनिर्मित ' उपाधि द्वारा अभिहित किया। "जैन-वचन अंजनवटी, आजै सुगुर प्रवीन । रागतिमिर तऊ ना मिटै, वहो रोग लखलीन ॥" -कविवर भूधरदासजी २. न्यूलर-ए लीजेंट ऑफ दि जैन स्तूप ऐट मथुरा, म० १८९४ ॥ ३. देखिए जैन पैटिकेरी, जुलाई, १९४६, पृ. ४००३ ।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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