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________________ १८४ भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ। भन्नावस्थामें देखे थे। परन्तु उसने इन स्तूपोंको बौद्ध माना था। किसी अबौद्ध राजा द्वारा उनके उत्खननकामी वह उल्लेख करता है। पहाडपुरके ताम्रपत्रमें (ई० स० ४७९) आचार्य गुहनन्दिन और उनके शिष्य 'पचस्तूपान्धयी ' कहे गये हैं। हो सकता है कि पटनेके प्राचीन पचस्तूरों के प्रश्रयमें जो सघ रहता था, वह नोंके उन प्राचीन पाँच स्तूपोंके कारण पञ्चस्तूपान्वयी कहलाता हो। नवनद जैनधर्मावलबी थे या नहीं यह हम नहीं जानते, हॉ इतना अवश्य ज्ञात है कि उनमसे किसीने कलिंगसे जिन-प्रतिमा लाकर अपने यहाँ रखी थी। सम्भव है कि पूजनार्थही वह प्रतिमा वहाँ लाई गई हो । पाटलिपुत्रके उत्खननमें मौर्यकालीन स्तर पर कुछ चबूतरे ३०४५'४"xv६" के मिले हैं। डॉ. मोतीचन्द्रजीका अनुमान है कि इन लकडीके चबूतरोंका ठीक ठीक तात्पर्य क्या था यह कहना कठिन है, लेकिन यह सम्भव है कि इनका सम्बन्ध नन्दोंके स्तूपोंसे रहा हो।" जैनस्तूप अथवा जैनाचार्योकी समाधियोंका उल्लेख हमें खारवेलके हाथीगुंफावाले लेखमेमी मिलता है। इन समाधियोंको ''निसिदिया' या निपीदिकाएँ कहते थे। 'निषीधि' 'निशिद्धि' निषिद्धि' और 'निषिद्धिगे' इत्यादि एकही शब्दके मिन्न भिन्न रूप है। इस प्रकारकी एक 'अईत् निसिदिगा' खारवेलके समय,भी वर्तमान थी। यह किसी अईतके स्मरणार्थ निर्मित साधारण समाधि न होकर वस्तुतः स्तूपही था क्योंकि 'निसिदिया' शब्दका विशेषण 'काय' इस ओर सकेत करता है कि स्तूपमें किसी अर्हत्के, जिसके नामसे हम परिचित नहीं है पाञ्चभौतिक अवशेष अन्तर्निहित थे। कलिंग देशमें लाक्षणिक जैन स्तूपोंकमी होनेका प्रमाण हमे मिलता है। खण्डगिरीकी गुफा ओमें जैन सप्रदायकी वस्तुएँ जैसे तीर्थंकर प्रतिमाएँ, त्रिशूल, स्वस्तिक, वेदिकास्तम इत्यादि पाई गई है परन्तु स्तूपोंको छोड़ कर कोईभी ऐसी वस्तु नहीं मिली है जो निश्चित रूपेण बौद्ध कही जा सके । अतएव ये स्तूपमी जैनस्तूपही होने चाहिये, बौद्ध नहीं । इन वस्तुओका यहाँ पाया जाना कोई आश्चर्यका विषय नहीं है क्यों कि कलिंग प्राचीन कालसेही जैन धर्मका केन्द्र बन चुका था। जैन अनुश्रुतिके अनुसार तक्षशिलाभी इस सप्रदायका प्रमुख केन्द्र था। प्राचीन टीका साहित्य में इसे 'धर्मचक्रभूमि' कहा गया है।३२ प्रभावक चरितमें मानदेव सूरिकी कथाके अन्तर्गत पक्ष ४ Watts-On Yuan Chawang's Travels in India, P 96 4. Epigrapbia India, Vol XX pp 59, lide 6th Ibid pp 71 Hátbigumpha Inscription of Khäravel, line 12th. ७. दा. मोतीचन्द्र-'प्रेमी अभिनन्दन प्रथ' पृ० २३५० Indian Antiquary Vol XII pp 202 Epgraphin India, Vol. xxp71 Hathigumpha Inscription, line 14th १. Chimmanlal Shah-Jainism xn North India p 182 ११ lbrd, pp_152-158 and 248-49. १२, बक्स्प सूम १७.५४.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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