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________________ १७० भ० महावीर-स्मृति-अंध। वैसे उतारा गया और उसके साथ नृत्यके कितने भिन्न-भिन्न रूपोका प्रदर्शन किया गया, इसको पढते-पढते ऐसा लगता है मानों हम प्राचीन भारत के किसी प्रेक्षागारमें जा बैठे हो जहां चाक्षुए यज्ञके रूपमे नाटकका विस्तार हो रहा हो और जिसमें कलाके अनेक चिन्हांको नृत्यके रूपमें उतारा जा रहा हो । एकसौ आठ देवकुमार देवकमारिया सूर्याम देवकी आभासे बत्तीस प्रकारकी नाट्य विधि (बत्तीसइ-बद्ध ण विहि) का प्रदर्शन करती है । इसके अन्तके कार्यक्रममें केवल महावीरके जन्म, अभिषेक, वालमाव, यौवन, कामभोग, निक्रमण, तपश्चरण, ज्ञानोत्पति, वीर्य-प्रवर्तन और परिनिर्वाणका अभिनय किया गया। शेष इकत्तीस पविभक्तियोंमें प्राचीन भारतीय गीतवाद्य नाट्यका उदार प्रदर्शन सम्मिलित था । उदाहरण के लिये पहले विमागमें त्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्यावर्त, वर्षमानक, भद्रासन, कलश, मल्ल्ययुग्म, दर्पण इन आठ मांगलिक चिन्होंका आकार-अभिनय दिखाया गया जिसे मगल भत्तिचित्र कहते थे। इसमें नाट्यविधिसे इन वस्तुओका स्वरुप प्रतिपादन प्रेक्षकजन समूहके सम्मुख किया जाता था। दूसरे मतिचित्रमें भात प्रत्यावर्त, श्रेणि-प्रोण, स्वस्तिक, पुष्पमागावक, वर्षमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक, प्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि अभिप्रायोंका नाट्यके द्वारा रू खडा किया गया। श्रेणि-प्रश्रेणिको प्रात सेढि-पसेढि कहा गया है। नृत्यमें सेदि या सीढीकी रचना किस प्रकारकी होती होगी इसका एक उदाहरण भरहुतसे मिले हुए एक शिलापट्टके दृश्यमें पाया जाता है, इस समय वह इलाहाबाद सग्रहालयमै है। इसमें एक प्रस्तार (पिरेमिड) का निर्माण किया गया है, नीकी पक्तिमें आठ अभिनेता हाथोंको कन्धोंके ऊपर अगए हुए खडे हैं, दूसरी पंक्तिमें चार व्यक्ति हैं, जिनमेंसे हरएकके पैर नीचेवाले दो व्यक्तियों के हाथों पर रुके हैं, तीसरी पक्तिमें दो व्यक्ति हैं और सबसे ऊपर केवल एक पुरुष उसी प्रकार अपने हाथ सचा किये हुए खडा है। नाट्यके ये प्रकार विशाल भारतीय जीवन के अग थे, जैन वौद्ध हिन्दकी पार्मिक पचियां उनके साथ नयी नहीं की जा सकतीं। सभी वो यह सम्भव है कि वस्तुका नामोल्लेख जैन साहित्यमें मिले और उसका कलागत वित्रण बौद्ध स्तूपमें प्राप्त हो । बत्तीसी नाट्यविधिकी तीसरे भक्तिचित्रमें ईहामृग, उपम, तुरग, नर, मकर, विहग, च्याल, किन्नर, २९, शरम, चमर, कुंजर, वनलता, पद्मलताका रूपविधान अभिनयमें उतारा गया। चौथी भक्ति (अग्रेजी मोटिफ) में तरह-तरहके चक्रवाल या मडलोंको अभिनय किया गया। मयुराके जैन स्तूपसे प्राप्त आयागपट्टोपर इस प्रकारके चक्रवाल बने हुए मिले हैं जिनमें दिक्कुमारिया महलाकार नृत्य करती हुई दिखाई गई हैं। इस देशमैं साहित्य और कला सदा हायमें हाय मिला कर पग रखते रहे हैं। प्रत्येक युगमें वे एक दूसरेकी व्याख्या करते हुए पाए जायगे। पाचवी आवलि प्रविभक्तिचन्द्रावली, सूर्यापली, वलयावली, हसावली, एकावली, तारावली, मुज्ञावली, कनकावली, रत्नावली-इन स्वत्योंका चित्र प्रतिपादन किया गया। छटी विभक्तीमें सूर्योदय और चंद्रोदयके बहुरूपी उद्गमनोद्मनोंका चित्रण किया गया। भारतीय आकाशमें सूर्य और चन्द्रका उगना प्रकृतिकी अति रमणीय घटनाएं हैं, जिनके दर्शनके लिये मनुष्यही क्या देवोके नेत्रभी ललचौहे वन सकते हैं। कवि और साहित्यकार अनेक ललित कल्पनाओंके भाव सुन्दर शब्दावलीका उपहार इनके लिये अर्पित करते रहे हैं। अपने सूर्यो
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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