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________________ जय-चौर! 'सो जयह जरस केवलणाणुजलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिविवं दीसइ वियसिय सयवत्तगभगउरी वीरौ ।' - कसायपाहुड ( जयधवल) अर्थ- 'जिसके केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल दर्पणमें लोक और अलोक विश्वदरूपसे प्रतिविम्बकी तरह दिखाई देते हैं अर्थात् झलकते हैं, और जो विकसित कमलके गर्म अर्थात् भीतरी भागके समान समुज्जल अर्थात् तयार हुये सोने के समान पीतवर्ण है, वे वीर भगवान् जयवन्त हो ।' "जय जगजीव जोणी, विहाण ओ जगगुरु जगाणन्दो, जगनाहा जगबन्धु, जयइ जगपिया महा भयवं ।। १ ।। जयइ सुयाणयभवो, तित्ययराण अपच्छिमो जयइ, जयइ गुरूलोयाण, जयइ महप्पा महावीरो ॥२॥ अर्थ"जगतके सपूर्ण चराचर जीवोंके जाननेवाले भगवान महावीर जोकि जगतके गुरु, नाथ, हितैषी और आनन्दल है उन जगत पितामह म. महावीरकी जय हो, जय हो! ___ "दादशान सूत्रों के जन्मदाता, तीर्थंकरोंमें अन्तिम तीर्थक्र, समग्र लोकक गुरू ऐसे महान् भारमावाले म, महावीर की जय हो जय हो!!"
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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