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________________ श्री. चैनसुखदासजी शास्त्री | १४१ है । ससारमें सबसे बड़ी जाति वह है जिस नातिमै सयम, नियम, शील, तप, दान, दम और दया विद्यमान है । गुणोंसे जाति बनती है और गुणोंके नाश होनेसे उसका नाश हो जाता है इसीलिये विद्वानको गुणकाही भादर करना चाहिए । जातिभेद मनुष्यको नीचा गिरा देने वाला है । यदि मनुष्यको उठना हो तो गुणोंका आदर करना चाहिये क्योंकि उच्चस्व के कारण केवल गुण हैं ! यह सब कुछ होते हुयेमी आजके जैन बुरी तरह जातिवाद के शिकार हैं । वे अपने आचार्यों के जाविकी नि.सारता बतलाने वाले आदरणीय उपदेशकी ओर कोई ध्यान नहीं देते। भगवान महावीरके सर्व जाति समभावकी आन स्वय जैनोके हाथही जो दुर्गति हो रही है उससे बड़ा दुःख होता है । " एकैव मानुषी जातिः " यह जैनोंका नारा था और महावीर युगमें इसमें बहुत बडी सफलता मिली थी । यही एक ऐसा नारा है जो सारे राष्ट्रको एक निष्ठ और एक प्राण बना देनेवाला है | आज हमारा प्यारा देश अभूतपूर्वं विपत्तियके दलदलमें फँसा हुआ है । उसका उद्धार करने के लिए सबसे पहले जातिभेद के पिशाचको नष्ट करनेकी जरुरत है। यह कितने दुःखकी बात है कि इस अभागेदेशमें तीन हजारसेभी अधिक जातियोंकि सख्या है। इनके उपभेदोंकी संख्या - तो सचमुच मनुष्यको कपादेनेवाली है । अकेले ब्राह्मणामही दो हजार जातियाँ बतलाई जाती है । की एक शाखा सारस्वत ब्राह्मणोंकी चारसौ उनहत्तर उपशाखाये हैं । क्षत्रियोंकी पाच सौ नब्वे, बैक्ष्यों और शूद्रोंकी छह सौ केभी ऊपर शाखाऐं हैं। छोटेसे करीब २५ लाखकी जन संख्यावाले जैन समाजके एक दिगम्बर संप्रदाय ही ८४ उपनातियाँ हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रकी इन जातियों एव उप जातियोंमें परस्पर विवाहसदध नहीं होता। इतनाही नहीं इनमें परस्पर भोजनव्यवहारभी निषिद्ध है । आर्य तो इसबातका है कि इस वैज्ञानिक युगमैभी इन चीजोंको धर्म माना जारहा है । भारतीय मनुष्यके उत्थानमें इन जातियोंने हर तरहकी बाधायें डाली हैं । यद्यपि मिश्र, चीन और जापानमेंभी प्राचीन कालमै नाति भेद था । पर इस देशकी तरह उनमे इतनी कट्टरता कमी नहीं थी और न इतनी शाखा प्रशाखाएं थी। भारत वर्ष जैसी जाति भेदकी कट्टरता ससारके किसीभी देशमें नहीं मिलती । श्रुति स्मृतियोंके शासनने इस कट्टरताको समय समयपर प्राण दान दिया 1 है। जैन तीर्थंकरों और जैनाचार्योंने यद्यपि इसका घोर विरोध किया पर वरणाश्रम धर्मके शासनने इनको अधिक सफल नहीं होने दिया। बौद्धोने इसमें जरूर सफलता पाई पर भारतवर्षके बाहर नाकरही | आज देशको इस बातकी जरूरत है कि हम सब मिलकर इस जाति भेदकी प्रथाको मिटा डाले ।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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