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________________ १३६ भ० महावीर स्मृति ग्रंथ। महापुरुषोंका जीवनचरित्रपठन, प्रतिष्ठा, देवपूनन-दर्शन, स्रोत्रपाठ, सामायिक, विननिशरणार्य जाप्य विधान, एवं हवन, शुद्धमर्यादित भोजन और शारीरिक सुदि आदि जो आधरण बाह्य रूपमें किये जाते है और जिनके करनेसे लोग धर्मात्मा कहे जाते है वे सय अतरग मन और आमाके सुधारके लिए हैं। पुराण स्मृति आदिको सहायतासे होनेवाली आमश्रद्धा एवं मानसिक शुद्धिसे यइ जीव सम्यक्त्वको प्राप्तकर लेता है। पुराणादिमे कहे गये आदर्श उदाहरणोंसे अपनी आत्माकी और झुकनेकी प्रेरणा मिलती है परन्तु भावशून्य उक्त क्रियाये यथार्थमें फलदायक नहीं । बरणानुयोग सकषाय एव भोले जीवोंको लोम, अरति, जुगुप्सा अदिकषायोंको उत्पन्न करकेही धर्मकार्यमें लगाया गया है। तीव्र दुखी एव पापकर्ममें लगे हुए जीवोंको स्वर्ग, पुत्र, धनादिका लालच दिखा कर पूजन पाठ आदिमें लगानेके वाक्य हम पुजापाठों एवं स्वोरोंमें सदाही पढते हैं। पूजनोंके अतर्मे पता जाने वाला आशीर्वाद इसका प्रमाण है। स्तोत्रों एवं विनतियोंमें सौता, द्रौपदी, सेठ धनजय आदिके उदाहरणमी हम पढते हैं जिनके आत्मिक शुद्धभावों और पूर्वपुण्यके प्रभावसे सकट घर हुए थे। इनसे यह लाम अवश्य है कि वे जीव पापाचरणमें न पस कर पुण्यरूप प्रवृत्तिमे लगते हैं और पीछे इसीसे सच्ची धर्मबुद्धि (आध्यात्मिकता) भी हो जाती है। जिनेन्द्र तो रागद्वेषसे रहित हैं, वे न प्रसन्न होते हैं और न कष्ट, किन्तु उन परमात्माके गुणों का चित्तमें चितवन करनेसे हमारी कर्मप्रकृतियाँका तीन अनुभाग (फल दानशक्ति) मद या नष्ट हो जाता है। हमारे आत्मिक उच्च मावही इसमें कारण है। जिनेन्द्र के आलंबनको पानेसे हम व्यवहार में उनका मसाद" या कृपा कह दिया करते हैं। आहारशुद्धिकी वैज्ञानिकवा तो स्वय आयुर्वेदशास्त्र बताते हैं। जैसा भन्न खाया जायगा वैसाही परिगमन होता है और शारीरिक विकारसे मन पर असर होताही है। आहारके समयके भावोंकामी प्रभाव उसके पाचन पर पडताही है। भोज्य द्रन्योंकी मर्यादाभी अपना महत्व रखती है वह खाद एवं वैज्ञानिक मोंसे जानी जा सकती है। 'सिद्ध पदार्थ विशन ' में कैप्टन स्ववोर्सनीन्ने अनछने जलबिंदु ३६४५० स जीव खुर्दबीनसे बताये है। विवादि प्रतिष्ठाओंमें प्रतिमा प्रतिष्टाके साथ दानादिमी किये जाते हैं। इन सबसे वायचारित्र जो कि अंतरंग शांतिका साधन है, पालनमें और आर्जित धनके सदुपयोगमें मदद मिलती है और सामाजिक संगठन-परिचय आदि लाभ होते हैं। प्रतिमाओं की क्रियाओंमभी जो विशेषतायें हैं वे यहा विस्तारके मयसे नहीं बताई जा रही हैं। विधिपूर्वक दनाया भोजन या औषधिका मूल्य वही जानते हैं। इतना तो कहना पडेगा कि प्रविष्टाचार्याने विविध प्रभावनाके नाम पर इनमें अधिकीय वाड्मयाडम्बर और मिल्याव ला दिया है, जिसके जैनेतर क्रियाकाड कामी प्रभाव है। इस प्रतिष्ठा और पूजनादिके क्रियाकाडको लेकर नैनोंमें अनेक आम्नायें (पथ) हो गई है जिनसे कषायकी ही पुष्टि एवं परस्पर कलह बढ़ गया है। यह सत्र यथार्थ उद्देश्य एव साध्यको विस्मृतकर साधनोंकोही साथ समझनेका दुष्परिणाम है। १८. अत्तरपुराण, ९९. मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ. ४१७ २० कल्याणमंदिर एव स्वयंभूस्तोत्र, स. आप्तपरीक्षा
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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