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________________ जैन धर्म क्या है ? (श्री अजितप्रसादजी, एम. ए., एलएल. बी., लखनऊ) जैन धर्म वस्तुस्वभाव है। वह सम्प्रदाय, आम्नाय नहीं है। वह नियमसयह नहीं है। वह सांसारिक व्यवहारका मार्गप्रदर्शक कोश नहीं है। वह जनसमूह नहीं है । वह कोई जाति नहीं है । वह कोई विरादरी, पार्टी नहीं है। जैनधर्म किसीका बनाया हुआ, किसीका स्थापित किया हुआ नहीं है। जैनधर्मका कोई सस्थापक पैगवर नहीं है । जैनधर्मका आदि-अन्त नहीं है। जैनधर्म न कभी शुरू हुआ, न कमी खतम होगा। न कभी प्रारम्भ हुआ, न कभी नाश होगा। वह तो जो कुछ है, उस सबका श्रद्धान, गान है। जैन धर्मका सिद्धान्त ८ वरसका यालक समझ सकता है और जैन धर्मका ज्ञान इतना गामार है कि जन्म जन्मान्तरमेंमी पूर्णशान होना मुशकिल है । मगर एक जन्म, दो जन्म, या तीन जन्म सम्पूर्ण जान, केवल जान, आत्म जान, परमात्म पद मुक्ति, मोक्ष प्राप्ति संभव है। हरएकको हो सकती है 1 उस परम पदक्री प्राप्तिमें अपनी स्वय शक्ति ही एक मात्र साधन है। किसी अन्य मुरुपकी सहायताकी आवश्यकता नहीं है। किसीकी मेहरबानी, कृपा, सिफारिश या बलिदान पर निर्मर नहीं है । केवल अपना पुरुषार्थ, परम पुरुषार्थही उस परमैश्वर्यका साधन है । जैन धर्मका साधन प्रत्येक बालक, व्यक्ति, युवक, चूद्ध, स्त्री, पुरुष, रोगी, स्वस्थ, हर अवस्था कर सकता है । जाति, वर्ण, आदिकी रोक टोक नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र, कोईभी हो वह मोक्षका अविकारी है, मुक्ति प्रत्येक जीवका जन्म-सिद्ध अधिकार है, चाहे जिस देशमें रहता हो, चाहे जो भाषा बोलता हो, चाहे जिस घरमें कुलमें जन्म लिया हो । मनुष्य जैन धर्मके सिद्धान्त पर चल कर आत्मोन्नति करता हुआ लोकके अग्रभागमें शुद्ध-स्वतंत्र होकर नित्य शाश्वत, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य, अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, मन रह सकता है । प्रत्येक जीव शक्तितः परमेश्वर है । अपने निजी पुरुषार्थसे उस परमेश्वरत्वको व्यक्त कर सकता है। नरसे नारायण बन सकता है। जैन धर्मका सिद्धान्त सरल, निर्विवाद है। दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मदिर मार्गी, तेरा पन्थी, वारण पन्थी, भादि भेद प्रमेद जैन धर्म नहीं हैं। यह तो जैन धर्म अपवाद हैं। भौतिक विद्यामदसे मदोन्मत्त मनुष्यों ने अपने कपायसे प्रेरित होकर अपनी पूजा प्रतिष्ठा करानेके लिये अपने अपने मठ स्थापित कराके अनन्त ससारका वध किया है। साम्प्रदायिकता, कट्टरपना, थाम्नाय भेद, जैन धर्मका अनादर, मिथ्या भावना, फर्मबन्धका कारण है। ___सम्चा जैनधर्म अनुयायी, वीर भगवानका उपासक, तो ''सत्वेषु मैत्री, गुणिधु प्रमोद, निधेषु जीवेषु कृपा परत्वम् , माध्यस्थ भाषम् विपरीत भूतो," रूप सिद्धान्त पर चलता है। उसके प्रत्येक म.स्..
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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