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________________ [७६] सम्मिलित है । दुःखी जनोंके दुःखको हम देखते हैं और उनमें किसी दुःखको दूर करनेकी हमारी शक्ति है परन्तु उस समय हम - अपनी शक्तिका सदुपयोग न करते मात्र उसकी ओर दुःखका रुक ही बताते हैं कि " अरे! यह वेचारा कितना पीड़ासे दुःखी है ? ऐसी भावनासे दया नहीं होती है परन्तु उल्टा ट्याका खून होता है, इतना ही नहीं परन्तु यह सम्पूर्ण निर्दयता है। जितने अंशमें उसका दुःख दूर करनेकी हमारी शक्ति अधिक है उतने अंशमें हमारी निदयता भी अधिक गिनने योग्य है। हमारे सहज प्रयत्नसे उसका दुःख दूर होता है अथवा न्यून होता हो तो भी हम उसकी अपेक्षा करके मात्र समभावको दर्शाकर चले जाय और ऐसे सममावको दयाके नामसे संबोधित करना ही वास्तवमें दयाके स्वरूपकी मस्करी करना है । जब किसीके मनमें पूर्ण दया उदय होनाती है तो वह कृति हुए विना निश्चित नहीं बैठेगा । जैन लोग निसको 'भावदया' कहते हैं वह भावना इस समय लोगोंके मनमें ऐसी अस्तव्यस्तरूपमें रह गई है कि अक्सर सिर्फ हवाई किल्लोंको अथवा शेखसल्लीपनाको भावन्याकी संज्ञासे प्रबोधित किया जाता है, परन्तु भावदयाका स्वरूप ऐसा नहीं है। दूसरेके दुःखकी स्थितिका तद्रूप अनुभव और उस स्थिति प्रति हमारी समदुःखिता अथवा अनुकम्पा.( समक्ष मनुष्य के हृदयकम्पका हमारा हृदय अनुकरण करे वही क्रिया) और इसके पश्चात् हृदयार्द्रता तया हृदयार्द्रताके बाद स्वार्थत्याग आदि हृदयकी सामग्रीके समुच्चयको भावदया कहना चाहिये । इतनी सामग्री तैयार होनेके पश्चात् । कृति होनेमें कुछ देर नहीं होती मात्र एक टकोरेकी ही अपेक्षा
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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