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________________ हितका नहीं परन्तु स्वके हितका ही साधक है और इस स्त परिणामका आधार, उस परोपकारी कृत्यके स्थूल प्रमाणपर नहीं, . परन्तु जिस स्वार्यकी भावनामेंसे यह कृति उद्भवित होती है, उस पर होता है । दूसरेके हितका होना अथवा न होना उसके! स्वकृत कर्मकी विचित्रता पर निर्भर है परन्तु हमारे हितकर नितनसे और कार्यसे हमें उसमें से अंतर्गत स्वार्थ त्यागके तारतम्यानुसार जरूर ही फल मिलता है। इससे हमें जो फल मिलता है वह हमारी कृतिमेसे नहीं, वह कृतिके मूल और उसके आत्मस्वरूपमें रही हुई स्वार्थपनेकी भावनामें से मिलता है। अक्सर हमारा कर्तव्य दूसरोंको सुखरूप होसके उतना सम्पूर्ण तथा प्रबल नहीं होता। अतएव दूसरोंके सम्बन्धमें कृत परोपकार रूप प्रयत्न निष्फल ही जाता है, परन्तु परोपकार करनेवाला उस प्रयत्नके वीज द्वारा शुभाशुभ प्राप्त कर सकता है यदि उसके अंदर स्वार्थ त्यागकी भावना विस्तरित हो चुकी हो । यदि ऐसा नहीं होता और फलका आधार सिर्फ अकेली स्थूल और भावना हीन कृतिपर ही होता तो इस विश्वमें किसी द्रव्य हीन मनुष्यसे अपना कल्याण वन नहीं सकता और यदि धनी पुरुष ही अपने द्रव्य द्वारा स्व और परका सच्चा कल्याण कर सकते होते तो शास्त्रकारोंको निष्कंचनत्व न कहना पड़ता इतना ही नहीं परन्तु बोध देनेके बजाय चाहे जैसे अधिक पैसे संग्रह करके परमार्थ करनेका एकान्त उपदेश देना पड़ता । परन्तु जब ऐसा ही है तब हमें स्पष्ट मालूम होता है कि स्वयम्की कृति फलदायी नहीं है पर उस कृतिमेंसे पीछेसे जो स्वार्थ त्यागकी भावना होती है वही . फलदायी है। त्यागकी भावना बिदुन त्याग अक्सर अभिमानका'
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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