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________________ [७१] उसका सम्पूर्ण सुख मिलता है। जो कि जिनदत्तका भोग मात्र भावपर्यवसायी अथवा चिन्तात्मक ही नहीं था । उसने विचारको मनमें ही नहीं रखा था । परन्तु अपनी भावनाको क्रियात्मक करनेके लिये सब तैयारी कर रखी थी। परन्तु जब उत्तम पुरुष अपने उद्देशको हर तरहका प्रयत्न करने पर भी अपूर्ण और आधे अपूर्ण ही देखते हैं तब वे वहाँपर अपने पुरुषाथकी न्यूनता ही देखते हैं। जिनदत्तने प्रमुके भक्ति भावका भवसर खोया इसलिये वह अत्यन्त पश्चात्ताप करने लगा। इसके पश्चात् थोड़े ही समयमें उस नगरके उपकंठ (Suburb) में पार्श्वनाथ प्रमुके शिष्य समुदायमेंके कोई परम ज्ञानी माहात्मा माये । एक मुमुक्षु उनके दर्शनार्थ गया और उसने वंदनापूर्वक प्रमुके आहार सम्बन्धी सब हकीकत उनके सामने प्रकट की ! उसने उनसे पूछा कि जिनदत्त शेठ तो भोजनको नहीं बोहरा सका और नगरशेठ जिसके चाहे जैसे क्षुद भोजनसे भी प्रमुकी उदराग्नि शान्त हुई थी। इन दोनोंमेंसे अधिक पुण्य किसने प्राप्त किया ? मुनिने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावनाके यथातथ्य विवेकद्वारा उत्तर दिया कि “ अपनी उग्र भावनासे जो फल जीर्ण शेठने सम्पादन किया है उसका एक अंश भी नगरशेठने नहीं प्राप्त किया। नगरशेठकी भावनाहीन क्रियाका फल अत्यन्त स्तोक और नहींतव है और जिनदत्तने अपने परम विशुद्ध परिणामसे और प्रभु प्रति निरवधि भक्तिभावसे अच्यूत देवलोककी गतिका फल प्राप्त किया है। प्रभुके भोजनाथ उनकी राह देखते समय उसका आत्म-परिणाम बहुत अधिक त्वरासे उच्च श्रेणिमें बहता था और उसके भाव
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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