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________________ हैं। जो महात्मा परमात्मस्वरूप प्राप्त करनेको समर्थ हैं, उनक लिये इस तरहका वैभव प्राप्त करना बड़ी वात है परन्तु उनकी ईश्वर प्रति सबसे पहिले यही प्रार्थना होती है कि हे नाथ ! मैं दुःखमें अपना स्वत्व सम्हालनेको समर्थ हूँ परन्तु अनुकूल और वैमवयुक्तं स्थितिमें कदापि मैं मेरा वृत्त गुमा वैलूं। मुझे इस बातका ही सततं भय है इसलिये मुझे इस परिस्थितिसे बचा लो । संगम इस निर्बलताके स्वरूपको जानता था और आखिरके प्रयत्नरूप उसने प्र. मुको विषयके माधुर्यकी ओर खीचकर उनका योग भ्रष्ट करनेकी तजवीज करने लगा। प्रथम उसने अपनी दैवी सत्तासे वृक्षलता, वे फूलको प्रफुल्लित की और पत्रपुंनसे वृद्धिको प्राप्त विपुल वसन्तऋतुको पैदा की, साथ २ अपना प्रचंड साहस प्रकाशित करने लगा और ललित ललंना कुलके वदन कमलों का अनुसंधान किया इतनाही नहीं परन्तु साथमें रति पति भी प्रकट कर दी। अपने अनुपम सौर्यकी भ्रकुटीसे विश्वको विमोहित करनेवाली अनेक रमणिएँ प्रभुकें चारो ओर फिर गई और रास मंडलको जमालिया। विविध हावभाव, नये २ दृष्टिमाव और मोहक अंग विक्षेपसे वे अपने सुरत संकेतको विस्तारित करने लगीं। विविध तरहके मिषोंसे वे अपने वस्त्रोंको चलित करती थीं और शिथिल केशपातको सुदृढ़ करनेके बहाने वे अपनी भुनाओंकों ऊंची करके प्रमुको विमुग्ध करनेका जाल विछाने लगी। किसी बालाओंने मन्मथके विजयी मंत्र शास्त्र जैसा दिव्य संगीत गाना शुरू किया और कोई प्रभुको गाढ़ आलिंगन देकर दीर्घकालके वियोग जन्य आतापको शान्तं करनेकी चेष्टा करने लगी। परन्तु संगमको यह खबर नहीं थी कि जिस आत्मापर
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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